शंखनाद INDIA/योगेश भट्ट/देहरादून

तीरथ निसंदेह साफ सुथरी छवि  के सरल व्यवहार वाले राजनेता हैं । अभी तक के सियासी सफर  में उन पर न कोई आरोप है और न किसी विबाद से ही उनका नाता रहा है । ऐसे में मुख्यमंत्री के रूप में उनकी नयी भूमिका  बेहद चुनौतियों से भरी है ।

तीरथ को जिन भी समीकरणों में मुख्यमंत्री बनाया गया हो ,उसके कोई मायने नहीं   हैं । मायने इस बात के हैं कि मठों की सियासत में  तीरथ खुद को साबित कर पाते हैं या नहीं । तीरथ के  पास वक्त कम है और चुनौती बड़ी, उनसे बड़े बदलाव की दरकार है। तीरथ ने अपनी पारी की शुरुआत संभवत यही संदेश देने के मकसद से शुरू की। शुरुआती फैसलों में वाहवाही तो मिली मगर व्यवहारिक धरातल पर उन फैसलों पर  सवाल खड़े होने लगे हैं । इनमें पहला फैसला कुंभ मेले को लेकर है जिसमें उन्होंने कहा कि कुंभ में जो चाहे वह आए, कहीं कोई सख्ती नहीं होगी।

तीरथ की इस घोषणा के बाद से उहापोह की स्थिति बनी हुई थी, मगर उच्च न्यायालय नैनीताल ने उस पर रोक लगाकर स्थिति स्पष्ट कर दी है कि कुंभ में आने के लिए कोविड रिपोर्ट निगेटिव होना जरूरी है। वरना स्थिति यह बनी हुई थी कि इधर तीरथ सरकार कोविड रिपोर्ट नेगेटिव जरूरी न होने की बात कर रही थी । जबकि  मेला प्रशासन महाकुंभ पंजीकरण के लिए आरोग्य 72 घंटे की कोविड नेगेटिव रिपोर्ट लाने के निर्देश जारी कर चुका था। दूसरी ओर केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव के मुताबिक देश के 12 राज्यों में कोरोना के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। उन्होंने प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर आगाह किया कि कुंभ के दौरान इन राज्यों से संक्रमित तीर्थयात्री हरिद्वार पहुंचकर स्थानीय स्तर पर संक्रमण फैला सकते हैं।

दूसरी घोषणा में तीरथ ने त्रिवेंद्र कार्यकाल में गठित जिला प्रधिकरणों को खत्म करने का ऐलान किया। जिला प्राधिकरणों के खिलाफ प्रदेश में कई स्थानों पर लंबे समय से आंदोलन चल रहा है। यह घोषणा भाजपा के दबाव में त्रिवेंद्र भी कर चुके थे लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ। तीरथ की घोषणा के बाद शासनादेश जारी हुआ मगर प्राधिकरण खत्म करने का नहीं बल्कि नए शामिल हुए क्षेत्रों में नक्शा पास करने पर रोक लगाने संबंधी। यह मसला बेहद गंभीर है।

दरअसल यह सही है कि प्राधिकरण से नक्शे पास कराने की बाध्यता के चलते ग्रामीण क्षेत्रों, खासकर पर्वतीय क्षेत्रों में आम लोगों को घर, गौशाला, लघु व्यवसाय हेतु दुकान आदि के निर्माण में दिक्कतें आ रही हैं। मगर एक दूसरा पहलू यह भी है कि शहरों से लगे ग्रामीण इलाकों में जमीन के सौदागर, बड़े कारोबारी, बिल्डर आदि कृषि भूमि का व्यवसायीकरण करने में लगे हैं। खासकर मैदानी इलाकों में तो अवैध प्लाटिंग और अवैध कालोनियों के निर्माण का धंधा जोरो पर है। कोरोना काल के बाद तो देहरादून मसूरी और नैनीताल हल्द्वानी के नजदीक पहाड़ी इलाकों में भी दिल्ली और हरियाणा के खरीददारों का दबाव बढ़ता जा रहा है।

जरूरत इस बात की है कि ग्रामीण क्षेत्रों खासकर पर्वतीय इलाकों में स्थानीय लोगों और किसानों को किसी तरह की दिक्कत न हो, मगर इस तरह की छूट भी न हो कि कोई भी व्यक्ति कृषि भूमि का खत्म कर किसी भी तरह का निर्माण कार्य किसी भी उपयोग के लिए कर ले। प्रदेश के मैदानी इलाकों से लगे ग्रामीण क्षेत्रों को तो नियोजित किए जाने की बेहद जरूरत है। वरना इन इलाकों में चल रही अनियोजित व अनियंत्रित गतिविधियां आने वाले समय में परेशानी का सबब बनने जा रही हैं।

ध्यान रहे कि राज्य में जमीन बचाने के लिए नियामक संस्था तो जरूरी है, मगर उसमें यह सुनिश्चत करना आवश्यक है कि ये संस्थाएं मनमानी न करने पाएं। तीरथ सरकार के शासनादेश के बाद आम लोगों में तो असमंजस की स्थिति है लेकिन भू-माफिया के हौसले बुलंद हैं। नए शासनादेश के बाद कई इलाकों में तो लंबे समय से रूके हुए निर्माण कार्य अचानक गति पकड़ने लगे हैं। कुल मिलाकर बेहद संवेदनशील मसला है जिला प्राधिकरणों का, कहीं ऐसा न हो कि सरकार का फैसला जनता की आड़ में सिर्फ माफिया को फायदा पहुंचाने वाला ही साबित हो।

आनन-फानन में लिए गए तीरथ के फैसलों पर सवाल इसलिए भी है क्योंकि कोई भी निर्णय लेने से पहले तथ्यों को नहीं परखा गया। अब देखिए, हरिद्वार के दो विधायकों द्वारा लेन-देन की शिकायत पर सरकार ने प्रदेश भर में सहकारी बैंकों में चल रही चतुर्थ श्रेणी की भर्तियों पर रोक लगा दी। सरकार ने यह जानने की भी कोशिश नहीं की भर्तियां तो अभी हुई ही नहीं हैं, अभी सिर्फ प्रक्रिया चल रही है। अच्छा होता कि भर्ती की प्रक्रिया पूरी होने दी जाती और परिणाम घोषित किए जाने से पहले यह सुनिश्चित किया जाता कि भर्तियों में किसी तरह का लेन-देन न हुआ हो।

बता दें कि जिला सहकारी बैंकों में प्रत्येक जनपद में गार्ड व चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी पद पर भर्तीयां निकली हैं जिसमें हजारों की संख्या में आवेदन आए हैं। राज्य में संभवतः पहला मौका है जब सहकारी बैंक में गार्ड की भर्ती के लिए भी एक पारदर्शी चयन प्रक्रिया अपनाई जा रही है। साक्षात्कार से पहले आवेदकों की शारीरिक दक्षता का परीक्षण भी किया जा रहा था। बहरहाल तीरथ की रोक के बाद भर्ती प्रक्रिया रूक गई है और रोजगार का सपना देख रहे हजारों युवाओं को निराश होना पड़ा है।

तीरथ की त्रिवेंद्र के फैसलों को पलटने वाली घोषणाएं और भी हैं मगर गैरसैंण को कमिश्नरी बनाए जाने वाली घोषणा के अलावा किसी और को पलटना तीरथ के लिए शायद ही संभव हो। भले ही वह चार धाम के प्रबंधन के लिए गठित हुए देवस्थानम बोर्ड पर पुनर्विचार की घोषणा ही क्यों न हो। जहां तक चमोली, रूद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और बागेश्वर को मिलाकर गैरसैंण कमिश्नरी वाली घोषणा का सवाल है तो उस पर पुनर्विचार करने जैसा भी कुछ नहीं है। व्यापक विरोध और त्रिवेंद्र के हटने के बाद यह घोषणा प्रासंगिक भी नहीं रह गई है। वैसे भी उसका न कोई अध्यादेश हुआ, न ही कोई शासनादेश।

राजनैतिक विश्लेषकों की मानें तो तीरथ को बेहद संभलकर यह पारी खेलनी होगी । जो अराजकता त्रिवेंद्र राज में चंद करीबियों और सलाहकारों तक सीमित थी वह अब धीरे-धीरे पूरे तंत्र में फैलती जा रही है। पहले सत्ता का सिर्फ एक ही केंद्र था, व्यवस्थाएं दो आईएएस अफसरों के इर्द-गिर्द ही थी मगर अब सत्ता के कई केंद्र हैं। हाल यह है कि भाजपा संगठन के पदाधिकारी भी सरकारी हैलिकॉप्टर में उड़ रहे हैं।

मौजूदा स्थिति मनमानी करने वाले नौकरशाहों के लिए ज्यादा मुफीद मानी जा रही है। खबर यह है कि सीएम की नई टीम में अधिकांश उन्हीं को जगह मिली है जो पुराने पावरफुल नौकरशाहों के करीबी और भरोसेमंद हैं। रही बात बदलाव नजर आने की, बदलाव होता तो देहरादून से दिल्ली तक व्यवस्थाएं बदली हुई नजर आतीं। बदली व्यवस्थाओं में सबसे पहले उन अफसरों से जवाब तलब होता जिन्होंने पूरी व्यवस्था को अपना गुलाम बनाकर रखा है।

शुरूआत दिल्ली से होती, पूछा जाता कि कौन है राज्य का मुख्य स्थानीय आयुक्त? उत्तराखंड के लिए क्या है मुख्य स्थानिक आयुक्त की उपयोगिता? क्यों बनाया गया है यह पद, जिसके नाम पर दिल्ली में हर महीने मोटा खर्चा किया जा रहा है? क्या काम करते हैं और कहां रहते हैं मुख्य स्थानिक आयुक्त? ऐसा नहीं है कि नए मुख्यमंत्री को यह पता न हो कि दिल्ली में राज्य के मुख्य स्थानिक आयुक्त प्रदेश के मौजूदा मुख्य सचिव खुद ही हैं। यह उसी नौकरशाही की अराजकता का परिणाम है जिस पर राज्य में समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। यह पद बनाया ही इसलिए गया ताकि दिल्ली में भी साहब देहरादून जैसी सुविधाओं का उपभोग कर सकें। छोड़िए, मुख्य स्थानिक आयुक्त, स्थानिक आयुक्त जैसा अहम पद भी देहरादून में बैठे पावरफुल अफसर इसलिए कब्जा कर रखते हैं ताकि दिल्ली में उनके ठाट-बाट बने रहें।

बदलाव होता तो संभवतः स्थानिक आयुक्त कार्यालय की सूरत ही सबसे पहले बदलती। आखिर राज्य के रोजमर्रा के ही तमाम अहम काम होते हैं जिनके लिए राज्य के एक वरिष्ठ नौकरशाह का दिल्ली में होना जरूरी होता है। नए मुख्यमंत्री संवदेनशील होते तो आश्चर्य करते कि स्थानिक आयुक्त का पद तो है मगर उस पर तैनात अफसर तो देहरादून में तमाम अहम महकमों के सचिव के साथ ही मुख्यमंत्री के सचिव पद पर भी तैनात रहे।

बता दें कि दिल्ली में इन दोनो अफसरों के लिए गाड़ी, बंगला, सेवक से लेकर तमाम सुविधाएं हासिल हैं। रहा सवाल काम का तो उसके लिए इन अफसरों ने ‘शार्गिदों’ को छोड़ा हुआ है, हाल यह है कि जिन बैठकों में सचिव स्तर के अफसर को मौजूद होना चाहिए वहां उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व छुटभैये करते हैं। अंदाजा लगाइए, क्या पैरवी होती होगी उत्तराखंड की, भारत सरकार में तमाम बार उत्तराखंड की किरकिरी हो चुकी है मगर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। कोरोनाकाल में प्रवासियों के लिए व्यवस्था में भी चूक हुई, दिल्ली में सत्ता पक्ष के विधायक सुरेंद्र सिंह जीना की मृत्यु पर अंत्येष्टि में राजकीय सम्मान नहीं मिला, मगर सरकार ने जिम्मेदारों का जवाब तलब नहीं किया।

नए मुख्यमंत्री इसका संज्ञान लेंगे या नहीं, कहा नहीं जा सकता। तीरथ के आने पर बदलाव तो तब नजर आता जब गढ़वाल कमिश्नर कैंप आफिस छोड़ अपने पौड़ी स्थित कमिश्नर कार्यालय में बैठते। त्रिवेंद्र तो वायदे के बावजूद चार साल में भी यह नहीं कर पाए थे। बदलाव तब दिखाई देता जब पलायन आयोग पलायन पर रिपोर्ट देहरादून के बजाय कहीं पहाड़ में बैठकर तैयार करता। बदलाव का संदेश तब जाता जब देहरादून स्मार्ट सिटी का ब्यौरा तलब किया जाता और यह पूछा जाता  कि स्मार्ट सिटी का सीईओ और जिलाधिकारी देहरादून एक ही अफसर क्यों है?

बदलाव तब समझ में आता जब राजपुर रोड पर सौंदर्यीकरण के नाम पर खर्च की गई एडीबी की रकम और उसकी उपयोगिता का ब्यौरा मांग जाता। इसके बाद यह पूछा जाता कि दो साल में ही करोड़ों खर्च कर किए गए सौंदर्यीकरण के काम को क्यों ध्वस्त किया जा रहा है? व्यवस्था का बदलाव तब दिखायी देता जब रिस्पना और बिंदाल को पूरी इच्छाशक्ति के साथ अतिक्रमणमुक्त किया जाता ।

दरअसल बदलाव सिर्फ जुमलों से नहीं होता, वह सिर्फ मुखिया बदल देने से भी नहीं होता। उत्तराखडं में सत्ता परिवर्तन तो उस किताब की तरह है जिसकी सिर्फ जिल्द बदली गई है। बदलाव इच्छाशक्ति से होता है। प्रदेश में सियासी नेतृत्व राज्य हित में किया गया होता तो विकास में बाधक बने नियमों में बदलाव की बात होती। चमोली के रैणी आपदा में जान गंवाने वालों के परिजनों के साथ न्याय होता, किसी की जान कीमत बीस लाख किसी की सिर्फ छह लाख रुपये नहीं आंकी जाती।

बदलाव तब मानते जब मानव जनित आपदाओं के जिम्मेदारों को चिन्हित किया जाता। बदलाव तो तब दिखता जब भ्रष्टाचारियों को हाशिए पर धकेला जाता और काबिल अफसरों और राजनेताओं को सम्मान मिलता। वाकई बदलाव होता तो राज्य का खजाना खोखले प्रचार और इमेज बिल्डिंग पर लुटाना बंद कर दिया जाता। बदलाव का असर दून अस्पताल में अर्से से खराब पड़ी एमआरआई मशीन और तमाम सरकारी अस्पतालों में धूल फांक रही करोड़ों की मशीनों के चालू होने पर नजर आता। बदलाव होता तो सरकार करोड़ों की मशीनों के खराब होने की असल वजह पता करती और जिम्मेदारों को प्राइवेट जांच केंद्रों और अस्पतालों के साथ मिलीभगत के लिए दंड देती।

काश तीरथ यह जान पाएं कि बदलाव के लिए लोकलुभावन घोषणाओं या बडे वायदों की जरूरत नहीं है । बस जरा नीतियां साफ नीयत से तय होने लगें ,राज्य में तत्काल प्रभाव से स्थानांतरण नीति लागू कर दी जाए,  रोजगार नीति और महिला नीति पर काम शुरू कर दिया जाए, ठेके का रोजगार खत्म कर स्थायी रोजगार की व्यवस्था हो । राज्य में  भूमि  बंदोबस्त और  चकबंदी शुरू कराते हुए और 2025 में होने वाले परिसीमन को ध्यान में रखते हुए भविष्य की  प्लानिंग हो तो इतना ही काफी है….

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