वीर भड़ लोदी रिखोला
गढ़वाल में जिन अनेकों भड़ों की गाथाएं आज भी हमारे गांवों में गाई जाती हैं उनमें लोधी रिखोला का अग्रगण्य स्थान है ।हरि कृष्ण रतूड़ी के अनुसार वे महाराज महीपति शाह के शासनकाल में गढ़वाली सेना के सेनानायक थे। तिब्बत पार दापा घाट तक विजय प्राप्त करने का श्रेय भी इन्हीं को दिया जाता है । हरीराम धस्माना ने भी अपने एक लेख में उन पर कुछ प्रकाश डाला है। इनके बारे में प्रचलित पँवाड़े से भी कई बातों का पता लगता है । इसके अतिरिक्त बयेली पट्टी मल्ला बदलपुर निवासी उनके एक वंशज श्री सूबेदार देव सिंह रिखोला नेगी से मिली विस्तृत सामग्री एवं सब विवरणों की छानबीन करने के पश्चात श्री लोधी रिखोला के जीवन की मुख्य घटनाएं इस प्रकार हैं
पट्टी मल्ला बदलपुर के बयेली गांव में लगभग सन 1580 ईस्वी में इनका जन्म रिकोला परिवार में हुआ था।इनके पिता अपने इलाके के एक प्रतिष्ठित थोकदार थे। उनका बचपन अपने गांव में ही बीता जहां की खेलकूद और कसरत में इन्होंने अपना समय बिताया। इनकी उम्र अभी 13 -14 वर्ष की ही थी , कि ईड़ा पट्टी मौदाड़स्यूँ से एक बारात बयेली आई ।। उसके स्वागत सत्कार का सब गांव वाले प्रबंध कर रहे थे । गांव से नीचे जलधारा के पास पानी से भरा एक बड़ा गैड़ा रखा हुआ था ।गैड़ा इतना बड़ा भारी था कि कई लोग मिलकर भी उसे उठा नहीं पा रहे थे। उसी बीच बालक लोधी कौतहूल वश वहां पहुंच गए । उन्होंने अकेले ही उस गैडे को उठा लिया तथा चढ़ाई पर ले जाकर बारात के स्थान पर पहुंचा दिया।
इस पराक्रम को देख सब लोग आश्चर्यचकित हो गए और चारों ओर धूम मच गई । लोगों ने बारात का काम तो स्थगित कर दिया और इन्हें पालकी पर बिठाकर गाजे बाजों सहित गांव की परिक्रमा कराई और स्थानीय भैरव देवता के समक्ष पूजा करके इनका अभिसिंचन किया ।उस दिन से सब ओर यह खबर फैल गई कि एक नया भड़ पैदा हो गया है , और चारों और इनकी ख्याति फैलने लगी।कुछ दिनों बाद इनका विवाह एक संभ्रांत थोकदार परिवार की पुत्री से हो गया और यह सुख पूर्वक जीवन बिताने लगे । उन दिनों यह अधिकतर गांव के कुछ मील पश्चिम की दिशा में नयार नदी के किनारे खैरासैंण में अपने बागवान (बगीचे ) में रहा करते थे। लेकिन शीघ्र ही इनका एकांतवास क्रम भंग हो गया ।
महाराज महीपति शाह ने तिब्बत से बार-बार आकर लूटपाट करने वाले तिब्बती सरदारों को सदा के लिए परास्त करने का निश्चय किया। मुख्य सेनापति श्री माधो सिंह भंडारी के सुझाव पर उन्होंने गढ़वाल भर के सब भडों तथा अन्य वीर युवकों को निमंत्रण दिया। ये भला उस निमंत्रण को कैसे अस्वीकार कर सकते थे ? तुरंत श्रीनगर दरबार जाकर प्रस्तुत हो गए और एक सेना के संचालक नियुक्त हुए। तिब्बत युद्ध में इन्होंने यथेष्ट वीरता का परिचय दिया और इसलिए वहां से लौटने पर इन्हें दक्षिणी सीमा का रक्षा का भार दिया गया। क्योंकि यह स्वयं दक्षिणी गढ़वाल के निवासी थे ।
इनके कथानक में दिल्ली से दरवाजा तोड़कर लाने का एक स्थान पर उल्लेख मिलता है । इस विषय पर उस पँवाड़े में बड़े जोरदार शब्द आते हैं। लेकिन उस पर बात पर विश्वास करने के लिए पुष्ट ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है । संभवतया इन्होंने नजीबाबाद के किले पर आक्रमण किया होगा और अपने बल पर उस द्वारा उसके फाटक को नष्ट भ्रष्ट करके उसका कुछ अंश प्रमाण के तौर पर श्रीनगर दरबार में प्रस्तुत किया होगा ।पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने इनके पँवाड़े को संपादित किया था और उनकी भी इस विषय में यही सम्मति है ।
दक्षिण सीमा की रक्षा का भार उनके कंधों पर होने के कारण नजीबाबाद के किले पर आक्रमण करना यथेष्ट तर्कसंगत प्रतीत होता है क्योंकि उन दिनों डाकू लुटेरे गढ़वाल की सीमा में घुसपैठ करते और भागकर नजीबाबाद की सरहद में घुस जाया करते थे । संभवत उन्हीं का दमन करने के लिए इन्हें उसके लिए नजीबाबाद पर हमला करना पड़ा हो।दक्षिणी लुटेरों का दमन करने के लिए इन्होंने जिस स्थान पर अपनी रक्षिणी सेना नियुक्त की थी उसे ही अब रिखणीखाल कहते हैं ।उपरोक्त घटना के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हें कुछ समय तक कोई विशेष कार्य नहीं करना पड़ा और यह अपने बागवान में विश्राम करते रहे ।
उधर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में उत्तरी तथा पश्चिमी सीमा निर्धारण करने का कार्य जारी था और उस कार्य को करते हुए छोटी चीन में उनका देहांत हुआ। जब तक वे जीवित रहे तब तक सिरमौर आदि राज्यों में पूर्ण शांति रही और उधर के सब लोग गढ़वाल राज्य की संरक्षता स्वीकार करते रहे , लेकिन उनके देहवासन के बाद उन्होंने फिर अपना उत्पात शुरू कर दिए थे।वह गढ़वाल सीमा में घुसकर खड़ी फसलों को बर्बाद कर देते और गांव को लूटपाट कर वापस चले जाते। उनका दमन करने के लिए कई बार सेनाएं भेजी गई फल स्वरुप वे कुछ दिन शांत रहते लेकिन सेनाओं के लौटने पर वे फिर उत्पाद शुरू कर देते।
ऐसे अवसर पर महाराज महिपति शाह को फिर इनकी याद आई और इन्हें संदेशा भेजा गया कि यह पश्चिमी सीमा को ठीक करें । महाराज का संदेशा पाकर श्री लोधी ने सब परिवार वालों तथा ग्राम वासियों से विदा ली परंतु चलते समय इनकी बाई भुजा फड़कने लगी और इन्हें कुछ ऐसा लगा कि शायद वे जीवित ना लौट पाएंगे। इसलिए गांव से कुछ दूर निकल कर यह “बाट की पुंगड़ी” तक ही गए और वहीं रात भर विश्राम किया। दूसरी सुबह जब यह घर वापस लौट आए तो वीर प्रसविनी माता ने इनकी बुरी तरह भर्त्सना की और कहा कि देश की रक्षा के लिए चाहे प्राण भी देने पड़े पर वीरों को पीछे नहीं हटना चाहिए। यह कहा उन्होंने अपने दूध की धार छोड़ी और तवे पर छेद करके दिखलाया साथ ही यह कहा कि मेरे दूध की लाज रखना और अपने कुल को कलंक ना लगाना।
इस प्रकार से प्रोत्साहित होकर यह श्रीनगर पहुंचे और अपनी सेवाएं समर्पित की।महाराज ने स्वयं अपने हाथों से इनका तिलक किया और अपना आशीर्वाद देकर आदर सत्कार के साथ एक सेना के संचालन का भार इन्हें देकर पश्चिमी सीमा की ओर भेजा । अपनी वीरता , रण कुशलता और सैन्य संचालन के द्वारा इन्होंने सिरमौरी लुटेरों के दांत खट्टे कर दिए। उन्होंने उन्हें गढ़वाल की सीमा से बाहर तो खदेड़ा ही पर साथ ही सिरमौर की सीमा के अंदर घुस कर उनका बुरी तरह दमन भी किया । यहां तक कि सारे इलाके में त्राहि-त्राहि मच गई और सब ने आश्वासन दिया कि अब कभी भी गढ़वाल की सीमाएं लांग कर उत्पात नहीं मचायेंगे।
यह कहा है कि इनका इतना आतंक फैल गया था कि वहां के निवासी अभी तक अपने मकानों की छतों पर धुर नहीं बांधा करते हैं और वहां की स्त्रियां भी अपने लहंगों पर नाड़ा नहीं बांधा करती हैं । यह प्रथा वहां इसलिए प्रचलित है कि इनके चले आने पर वहां के लोगों ने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक वे लोग लोदी रिखोला के समान वीर भड़ पैदा नहीं कर बदला नहीं ले लेते तब तक वे उपरोक्त दो कार्य नहीं करेंगे।
लेकिन ना तो वहां ही और ना यहां ही फिर कोई ऐसा कोई वीर भड़ पैदा हो सका।
पश्चिमी सीमा से इस प्रकार सफलता प्राप्त करने के बाद जब यह श्रीनगर वापस लौटे तो इनका श्रीनगर में शानदार स्वागत किया गया। सारे राज्य में हर्ष मनाया गया और महाराज ने स्वयं अपने हाथों से इन्हें खिलअत पहनाई और आज्ञा दी कि कराई खाल से दक्षिण का सारा इलाका जागीर में इन्हें दे दिया जाए । पर उनके इस असाधारण सम्मान से मंत्रियों में खलबली मच गई और उन्होंने षड्यंत्र रचने शुरू कर दिए । उन्होंने महाराज को बताया कि श्री लोधी स्वयं राजा बनना चाहते हैं आदि-आदि।
अतः इन्हें आज्ञा दी गई कि यह एक विशेष दरवाजे को उखाड़कर अपने बल का प्रदर्शन करें। उस दरवाजे के पीछे एक गड्ढे में कई बरछे लगे हुए थे और ऊपर से नकली जमीन तैयार कर दी गई थी ।
उस विशाल फाटक को झटका देकर ज्यूँ ही इन्होंने उखाड़ा । यह नीचे गड्ढे में गिर गए और बरछों से बुरी तरह छिद गए। एक वर्णन के अनुसार इनका वहीं देहांत हो गया। सिर्फ इनकी पगड़ी बयेली तक पहुंच सकी। जहां इनकी पत्नी इनके साथ सती हो गई।एक अन्य वर्णन के अनुसार उन बरछों से घायल हो जाने पर भी यह साहस पूर्वक उठ खड़े हुए और अपने गांव की ओर चल दिए। खैरासेंण के पास एक नदी के किनारे पहुंचने के बाद चढ़ाई शुरू हो गई । इस कारण यह आगे नहीं बढ़ पाए और वहीं का प्राणान्त हो गया।
एक और कथानक के अनुसार इन्होंने अपनी पगड़ी से अपनी कमर के घाव कसकर बांध लिए और घोड़े पर सवार होकर अपने गांव की ओर चल दिए और वहां पहुंचने के बाद अपनी स्नेहमयी वीर प्रसविनी मातेश्वरी की सुखद गोद में उन्होंने अपना अंतिम सांस लिया। इनकी निसंतान धर्मपत्नी भी इनके साथ सती हो गई। उस भयानक शकुन को देखकर जन्मदायिनी वीर माता ने श्राप दिया कि उस दिन से उस कुल में कोई लडैया वीर पैदा नहीं होगा।
उधर महीपति शाह को भी गहरी आत्मग्लानि हुई कि किस प्रकार एक निश्चल वीर देश प्रेमी दरबारियों के षड्यंत्रों के द्वारा मारा गया। उनके बारे में कथानक है कि उन्होंने अपने राज्य के अंतिम वर्ष में हरिद्वार के कुंभ को जाते समय ऋषिकेश में भरत -मूर्ति की बिल्लौर की आंखें निकलवा दी और फिर लगवा दी। हरिद्वार पहुंचे तो वहां 500 जोगियों और 1000 गृहस्तों को मरवा डाला। अंत में उस धर्म विरुद्ध कार्य का प्रायश्चित करने के लिए बिना किसी कारण कुमाऊं के तत्कालीन राजा त्रिमल चंद से युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी उस विक्षिप्त अवस्था का एक मुख्य कारण श्री लोधी रिखोला की लोमहर्षक षड्यंत्रपूर्ण मृत्यु भी थी ।
उन्होंने उनके वंशजों को बदलपुर पैनों की जागीर प्रदान की जहां कि वे अभी तक थोकदार हैं। एक वर्णन के अनुसार गढ़वाल का रखवाला होने के कारण ही इन्हें रिखोला की उपाधि दी गई थी।
बदलपुर रिखोला थोकदारी दस्तूर गढ़वाल में सर्वाधिक बताया जाता है।लोधी रिखोला के वंशधर अभी तक मल्ला बदलपुर पट्टी के बयेली तथा कोटा ग्रामों में विद्यमान हैं और यथेष्ट संपन्न व्यक्ति हैं। लेकिन उनके वंशधरों के अतिरिक्त बयेली में इनका एक और स्मारक है ।
कहते हैं कि एक बार किसी व्यक्ति ने ताना मारा कि अगर वाकई भड़ हो तो अमुक पत्थर उठा लाओ। यह विशाल पत्थर गांव से कुछ दूरी पर पड़ा हुआ था। इन्हें तैश आया तो तो तुरंत उस पत्थर को उठा लाए और गांव के बीच में स्थापित कर दिया। वह पत्थर अभी तक मौजूद है और उसका अधिकांश भाग टूट गया है। लेकिन अभी भी जो टुकड़ा शेष है वह लगभग 6 फीट लंबा और 4 फीट चौड़ा 1 फुट ऊंचा है। वह आजकल बच्चों के बैठने व खेलने का प्रिय स्थान है , और श्री लोधी की वीर गाथा का पाषणमय स्मारक है ।
लेखक स्वर्गीय भक्त दर्शन लेख : सन 1940
फोटो गुगल साभार