योगेश  भट्ट/ देहारादून

अभी कुछ समय पहले टिहरी झील पर बने बहुप्रतिक्षित डोबरा चांटी पुल का काम पूरा हुआ, सरकार ने खूब सुर्खियां बटोरी। सरकार ने कुछ इस अंदाज में इसका श्रेय लिया मानो इसी सरकार ने रिकॉर्ड तोड़ समय में यह पुल तैयार किया हो। जबकि हकीकत यह है कि यह पुल किसी भी सरकार की उपलब्धि नहीं हो सकता, यह तो सरकारों के नकारेपन का जीता जागता उदाहरण है।

साल 2006 में मंजूर हुए इस पुल को तैयार होने में पूरे चैदह साल लगे और तय लागत के दोगुने से अधिक रकम खर्च हुई। इस दौरान बारी-बारी से दो सरकारें आई और गई। जब आईआईटी समेत कई संस्थाएं इस पुल का डिजाइन बनाने में नाकाम रही तो कोरियन कंपनी ने पुल का डिजाइन तैयार किया, खूब घपले घोटाले भी हुए। फिर भी मौजूदा सरकार इसका श्रेय लेती है तो अच्छा है, मगर इस पुल के उदघाटन के कुछ ही महीनों बाद बीते दिन चमोली की नीति घाटी में जो जल प्रलय आती है, उसमें सैकड़ों करोड़ का नुकसान होता है सरकार की अंतरिक्ष उपयोग केंद्र और अन्य एजेंसियां आपदा के पूर्वानुमान में नाकाम रहती हैं, बड़े पैमाने पर जान माल का नुकसान होता है मगर उसका जिम्मा सरकार नहीं लेती। आखिर क्यों ?

सवाल यही है कि जब हर सरकार विकास का श्रेय लेती है, तो विकास की कीमत पर होने वाले किसी भी विनाश का जिम्मा क्यों नहीं लेती ? जी हां, विकास की कीमत पर होने वाला विनाश। यह अब स्थापित तथ्य होने जा रहा है कि उत्तराखंड में कोई आपदा यूं ही नहीं आती। यहां विनाश का सीधा संबंध सरकारी विकास से है। नीति घाटी में आई आपदा को ही लीजिए, सरकार की ऐजेंसियां भले ही यहां फेल हो गयी मगर नीति घाटी के ग्रामीणों को किसी भी अनहोनी का अंदेशा काफी पहले से था।

वहां निर्माणाधीन पावर प्रोजेक्ट में विस्फोट किये जा रहे थे, अवैध खनन हो रहा था, वहां मलबे का उचित निस्तारण नहीं किया जा रहा था। गांव वालों की शासन प्रशासन में सुनवाई नहीं हुई तो उन्होंने उच्च न्यायालय नैनीताल में जनहित याचिका तक दायर की। इस जनहित याचिका में व्यक्त की गयी आशंकाएं इसका प्रमाण है कि नीति घाटी में जो आपदा आयी वह प्राकृतिक नहीं बल्कि मानवजनित है। सिर्फ नीति घाटी ही क्यों, इससे पहले केदारनाथ, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, बागेश्वर, मुनस्यारी और रुद्रप्रयाग में आयी आपदाओं को भी दैवीय या प्राकृतिक नहीं कहा जाना चाहिए।

दरअसल जिस विकास पर सरकारें इतराती हैं वह असंतुलित और अनियोजित रहा है। उसमें कहीं वनों की अधांधुंध कटाई हुई तो कहीं नदियों के बहाव के साथ खिलवाड़ किया गया। विकास और पारिस्थतिकी के बीच नियंत्रण और संतुलन बनाने की कहीं कोशिश नहीं की गई। विकास का जो मॉडल सरकारों ने अपनाया उसमें राज्य का संवेदनशील पारिस्थतिकी तंत्र लगातार मानव जनित आपदाओं का शिकार हो रहा है। यह आपदा साल दर साल कभी जल प्रलय, कभी भूस्खलन और भूकंप, कभी जंगलों में आग, कभी बेतहाशा बारिश और बर्फबारी के रुप में तो कभी सूखे के रुप में सामने आती है।

इसमें कोई दोराय नहीं कि राज्य में विकास हुआ है। विकास नहीं हुआ होता तो पंद्रह हजार करोड़ से शुरु हुई राज्य की अर्थव्यवस्था ढाई लाख करोड रुपये तक नहीं पहुंची होती। विकास हुआ, तभी तो राज्य में सड़कों का नेटवर्क 25 हजार किलोमीटर से बढकर 43 हजार किलोमीटर का हुआ है। विकास के ही परिमास्वरूप तो राज्य की प्रति व्यक्ति आय पंद्रह हजार रुपए सालाना से बढ़कर दो लाख सालाना के पार पहुंच रही है। यह विकास ही तो है कि बीस वर्षों में उद्योगों की संख्या 70 हजार से बढ़कर चार लाख से अधिक हो चुकी है। अभी तक डेढ़ लाख हेक्टेअर से अधिक कृषि भूमि इस विकास की भेंट तो चढ़ी है।

बीस साल पहले राज्य में आठ लाख 15 हजार हेक्टेअर कृषि भूमि थी जो घटकर अब कुल सात लाख हेक्टेअर भी नहीं रह गई है। इस बीच कई बड़े फ्लाईओवर, झूला पुल, ओवर ब्रिज, मोटर पुल बने तो नई टनल भी बनीं। तकरीबन 850 किलोमीटर आलवेदर रोड बन रही है, ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेल पहुंचने ही जा रही है। एम्स, आईआईएम, एनआईटी आदि केंद्रीय संस्थानों के अलावा तकरीबन एक दर्जन सरकारी, गैर सरकारी विश्वविद्यालय और कई नए मेडिकल कालेज खुले हैं। बड़ी संख्या में सरकारी, गैरसरकारी आवासीय और व्यवसायिक भवनों का निर्माण हुआ है। बीते वर्षों में ’विकास’ हुआ तभी तो हजारों करोड़ का भ्रष्टाचार भी हुआ।

विकास हुआ जरुर मगर असंतुलित और अनियोजित। विकास राज्य की जरुरत और उसके भविष्य के मद्देनजर नहीं हुआ। इसी विकास के चलते राज्य में जनसंख्या का असंतुलन बढ़ रहा है। राज्य की विकास दर लगातार गिर रही है। साल 2016-17 में जो विकास दर 9.83 फीसदी थी वह साल 2017-18 में 7.9 फीसदी, साल 2018-19 में 5.8 और साल 2019-20 में गिरकर 4.30 फीसदी रह गई है। यही नहीं, बेरोजगारी की दर भी 22 फीसदी से अधिक है।

जब राज्य की अर्थव्यवस्था लगातार बढ़ रही हो, प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ रही हो और विकास दर तेजी से गिर रही हो यह तभी संभव है जब असंतुलित विकास हो रहा हो। असंतुलित विकास का ही परिणाम है कि हरिद्वार में प्रति व्यक्ति औसत आय दो लाख सालाना के पार है और रुद्रप्रयाग में 88 हजार। जानकारों की मानें तो आर्थिक दर गिरने का मतलब कृषि और औद्योगिक क्षेत्र में गिरावट ।

सवाल अंततः विकास पर खड़ा होता है। यह कैसा विकास है जो उत्तराखंड के भविष्य पर सवाल खड़ा कर रहा है ? यह कैसा विकास है जो आए दिन आपदाओं से सामना करा रहा है ? यह कैसा विकास है जो राज्य को बड़े असंतुलन की ओर ले जा रहा है ? यह कैसा विकास है जो पहाड़ के पानी और जवानी को नहीं बांध पा रहा है ? यह कैसा विकास है जो अमीर और गरीब के बीच की खाई को बढाता चला जा रहा है ? यह कैसा विकास है जो राज्य के लोगों को उनकी जड़ों से काट रहा है ? यह कैसा विकास है जिसमें जन सहभागिता नहीं है ?

दरअसल सवाल विकास के मॉडल का है। इस पर गौर करना होगा कि यह विकास का कैसा माडल है, जिसमें डॉक्टर और मास्टर पहाड़ चढ़ने को तैयार नहीं और इंजीनियरों को कोई एतराज नहीं। इस विकास के मॉडल में न जिम्मेदारी है, न जवाबदेही। हां, दो-दो अस्थायी राजधानियां और बीस बरस में 11 मुख्यमंत्री जरूर हैं। इस विकास के माडल में सड़कों ने गांवों को शहरों से जोड़ा मगर विडंबना देखिए, इन सड़कों और पुलों से विकास गांव नहीं पहुंचा बल्कि इन पुलों, सड़कों ने गांव खाली कर दिए।

सरकारी आंकड़े ही गवाह हैं कि राज्य बनने के बाद 32 लाख लोग पलायन कर चुके हैं और 1702 गांव भूतहा हो चुके हैं। सवाल वाजिब है कि क्या करें ऐसे विकास का जिसमें तकरीबन आधा दर्जन नए मेडिकल कालेज खुले फिर भी राज्य की स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं। प्रदेश के तमाम क्षेत्रों में या तो डाक्टर हैं ही नहीं या सिर्फ नाममात्र के हैं। आंकड़े बढ़ाने के लिए दंत चिकित्सकों को डाक्टर की जगह तैनात किया गया है।

विडंबना देखिए कि विकास का यह कैसा मॉडल है जिसमें कि हजारों की संख्या में पेड़ काटकर पर्यावरणीय मानकों को धता बताते हुए उत्तराखंड में ऑल वेदर रोड तो बन जाती है, औली के बर्फीले ढलानों पर चर्चित गुप्ता बंधुओं को शाही डेस्टिनेशन मैरिज की इजाजत दे दी जाती है मगर राज्य की आर्थिकी को मजबूत करने वाली दर्जनों परियोजनाओं पर काम शुरु नहीं होता। ऑल वेदर रोड पर मानकों के विपरीत हर मंजूरी मिल जाती है मगर गढ़वाल और कुमांऊ को जोड़ने वाली कंडी रोड के लिए स्वीकृति नहीं मिल पाती।

बहरहाल मुद्दा आपदा को हो या पलायन का, रोजगार का हो या स्वास्थ्य और शिक्षा का, हर समस्या का मूल विकास है और हर समस्या का समधान भी विकास में ही है। सरकार को यह समझना ही होगा कि राज्य की जरूरत सिर्फ विकास नहीं बल्कि समग्र और टिकाऊ विकास है।सरकार को आज नहीं तो कल विकास के मॉडल पर बात करनी ही होगी।

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