शंखनाद INDIA/ जयसिंह रावत
जून 2013 की भयंकर केदारनाथ आपदा के घाव भरे भी नहीं थे कि 7 फरबरी की सुबह हिमालय एक बार फिर गुस्से में आ गया। शीत ऋतु में जहां सभी नदियां और खास कर ग्लेशियरों पर आधारित हिमालयी नदियां ठण्ड से सिकुड़ जाती हैं, उनमें भयंकर बाढ़ का आना उतना ही विस्मयकारी है जितना कि केदारनाथ के ऊपर स्थाई हिमरेखा का उल्लंघन कर बादल का फटना था। शीतकाल में ग्लेशियरों के पिघलने की गति बहुत कम होने के कारण हिमालयी नदियों में इन दिनों निर्जीव नजर आती हैं और गर्मियां शुरू होते ही उनमें नये जीवन का संचार होने लगता है। लेकिन चमोली में भारत-तिब्बत सीमा से लगी नीती घाटी की धौली गंगा और ऋषिगंगा इतनी कड़ाके की ठण्ड में ही विकराल हो उठी।
अलकनन्दा की इन सहायिकाओं का ऐसा विनाशकारी रौद्र रूप अपने आप में चेतावनी ही है। प्रकृति के इस विकराल रूप को हम अगर अब भी हिमालय के जख्मों और उसे नंगा करने के विरुद्ध चेतावनी नहीं मानेंगे तो यह पुनः एक भयंकर मानवीय भूल होगी। प्रख्यात पर्यावरणविद् चण्डी प्रसाद भट्ट एक बार नहीं, अनेक बार इस अति संवेदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्र में भारी निर्माण के प्रति आगाह कर चुके थे। उन्होंने खास कर धौलीगंगा की बर्फीली बाढ़ से बरबाद हुये तपोवन-विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना के प्रति सचेत किया था। यही नहीं उत्तराखण्ड हाइकोर्ट ने भी 2019 में रेणी गांव के ग्रामीणों की शिकायत पर निर्माणाधीन ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना के निर्माण में हो रही पर्यावरणीय लापरवाहियों के प्रति राज्य सरकार को आगाह कर दिया था। इन परियोजनाओं के मलबे ने भी बर्फीली बाढ़ की विभीषिका को कई गुना बढ़ाया है।
मानव कल्याण के लिये विकास तो निश्चित रूप से जरूरी है, मगर विकास की योजनाएं बनाते समय योजनाकारों को क्षेत्र के इतिहास एवं भूगोल की जानकारी के साथ ही इको सस्टिम की संवेदनशीलता का ध्यान भी रखना चाहिये। ग्लेशियर (हिमनद) बर्फ की नदी होती है जो कि चलती तो है मगर चलते हुयी दिखती नहीं है। जबकि बर्फ के विशालकाय चट्टानों के टूटकर नीचे गिरने से एवलांच बनता है और उसके मार्ग में जो भी आता है उसका नामोनिशन मिट जाता है। ऋषिगंगा और धौली की बाढ़ इसी एवलांच स्खलन का नतीजा थी। लेकिन उसे ग्लेशियर टूटना और फटना बताया जा रहा है। हिमालय पर एक महासागर जितना पानी बर्फ के रूप में जमा है। इस हिमालयी ‘‘क्रायोस्फीयर’’ में ग्लेशियर और अवलांच जैसी गतिविधियां निरन्तर चलती रहती हैं। इनका असर निकटवर्ती मानव बसागतों पर भी पड़ता है। अलकनन्दा नदी के कैचमेंट इलाके में इस तरह की घटनाएं नयी नहीं हैं। ऋषिगंगा और धौलीगंगा परियोजनाओं से पहले अलकनन्दा पर बनी विष्णुप्रयाग परियोजना का लामबगड़ स्थित बैराज पहले भी एवलांच से क्षतिग्रस्त हो चुका है। सन् 2008 में हेमकुंड में एवलांच गिरने से 14 सिख तीर्थ यात्री मारे गये थे। सन् 1957 में इसी धौलीगंगा की सहायक द्रोणागिरी गधेरे में भापकुण्ड के निकट एवलांच आने से 3 कि.मी. लम्बी झील बन गयी थी। लगता है हमने अतीत से कुछ नहीं सीखा।
अलकनन्दा के इसी कैचमेंट क्षेत्र में तीब्र ढाल वाले नदी नाले पूर्व में भी अनेक बार भारी विप्लव मचा चुके हैं। सन् 1868 में चमोली गढ़वाल के सीमान्त क्षेत्र में झिन्झी गांव के निकट भूस्खलन से बिरही नदी में एक गोडियार ताल नाम की झील बनी जिसके टूटने से अलकनन्दा घाटी में भारी तबाही हुयी और 73 लोगों की जानें गयीं। सन् 1893 में गौणा गांव के निकट एक बड़े शिलाखण्ड के टूट कर बिरही में गिर जाने से नदी में फिर झील बन गयी जिसे गौणा ताल कहा गया जो कि 4 कि.मी.लम्बा और 700 मीटर चौड़ा था। यह झील 26 अगस्त 1894 को टूटी तो अलकनन्दा में ऐसी बाढ़ आयी कि गढ़वाल की प्राचीन राजधानी श्रीनगर का आधा हिस्सा तक बह गया। बद्रीनाथ के निकट 1930 में अलकनन्दा फिर अवरुद्ध हुयी थी, इसके खुलने पर नदी का जल स्तर 9 मीटर तक ऊंचा उठ गया था। सन् 1967-68 में रेणी गांव के निकट भूस्खलन से जो झील बनी थी उसके 20 जुलाइ 1970 में टूटने से अलकनन्दा की बाढ़ आ गयी जिसने हरिद्वार तक भारी बताही मचाई। इसी बाढ़ के बाद 1973 में इसी रेणी गांव गौरा देवी ने विश्व बिरादरी को जगाने वाला चिपको आन्दोलन शुरू किया था।
तब्र झाल के कारण हिमालयी नदियां जितनी वेगवान उतनी ही उत्श्रृंखल भी होती है। इसलिये अगर उनका मिजाज बिगड़ गया तो फिर रविवार को धौली गंगा में आयी बाढ़ की तरह ही परिणाम सामने आते हैं। नदी का वेग उसकी ढाल पर निर्भर होता है। हरिद्वार से नीचे बहने वाली गंगा का ढाल बहुत कम होने के कारण वेगहीन हो जाती है। पहाड़ में गंगा की ही श्रोत धारा भागीरथी का औसत ढाल 42 मीटर प्रति किमी है। मतलब यह कि यह हर एक किमी पर 42 मीटर झुक जाती है। अलकनन्दा का ढाल इससे अधिक 48 मीटर प्रति किमी है। जबकि इसी धौलीगंगा का ढाल 75 मीटर प्रति किमी आंका गया है। इसी प्रकार नन्दाकिनी का 67 मीटर और मन्दाकिनी का ढाल 66 मीटर प्रति कि.मी. आंका गया है। जाहिर है कि धौली सबसे अधिक वेगवान है तो उससे खतरा भी उतना ही अधिक है।
हिमालय में इस तरह की त्रासदियों का लम्बा इतिहास है मगर अब इन विप्लवों की फ्रीक्वेंसी बढ़ रही है। लेह जिले में 5 एवं 6 अगस्त 2010 की रात्रि बादल फटने से आयी त्वरित बाढ़ और भूस्खलन में 255 लोग मारे गये थे। वहां दो साल में ही फिर सितम्बर 2014 में आयी बाढ़ ने धरती के इस को नर्क बना दिया था। मार्च 1978 में लाहौल स्पीति में एवलांच गिरने से 30 लोग जानें गंवा बैठे थे। मार्च 1979 में आये एक अन्य एवलांच में 237 लोग मारे गये थे। सतलुज नदी में 1 अगस्त 2000 को आयी बाढ़ में शिमला और किन्नौर जिलों में 150 से अधिक लोग मारे गये थे। उस समय सतलुज में बाढ़ आयी तो नदी का जलस्तर सामान्य से 60 फुट तक उठ गया था। इसी तरह 26 जून 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलस्तर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था। इसके एक महीने के अन्दर फिर सतलुज में त्वरित बाढ़ आ गयी। वर्ष 1995 में आयी आपदाओं में हिमाचल में 114 तथा 1997 की आपदाओं में 223 लोगों की जानें चली गयीं थीं।
भूगर्भविदों के अनुसार यह पर्वत श्रृंखला अभी भी विकासमान स्थिति में है तथा भूकम्पों से सर्वाधिक प्रभावित है। इसका प्रभाव यहां स्थित हिमानियों, हिम निर्मित तालाबों तथा चट्टानों व धरती पर पड़ता रहता है। जिस कारण इन नदियों की बौखलाहट बढ़ी है। अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र अहमदाबाद की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हिमखण्ड के बढ़ने-घटने के चक्र में बदलाव शुरू हो गया है। हिमालयी राज्यों में देश का लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र निहित है। लेकिन पिछले दो दशकों में उत्तर पूर्व के हिमालयी राज्यों में निरन्तर वनावरण घट रहा है। विकास के नाम पर प्रकृति से बेतहासा छेड़छाड़ हो रही है। पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर हिमालय पर उमड़ रही मनुष्यों और वाहनों की अनियंत्रित भीड़ भी संकट को बढ़ा रही है।