राज्य सरकार द्वारा आगामी विधानसभा सत्र में समान नागरिकता कानून को पारित करने के संबंध में उत्तराखंड कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा ने प्रतिक्रिया दी है। माहरा ने कहा की यू सी सी पर राज्य और केंद्रीय सरकार ने अभी तक कोई ड्राफ्ट (मसौदा) जनसामान्य के सामने प्रस्तुत नही किया है। यदि सरकार ड्राफ्ट प्रस्तुत करती तो यह पता चल जाता कि सरकार किन किन विषयों पर एकरूपता/समानता चाहती है।
     इसके साथ ही करण माहरा ने कहा की यह समवर्ती सूची (concurrent list ) का विषय है, अर्थात इस विषय पर केन्द्र और राज्य दोनो ही कानून बना सकते है, किंतु जब कभी केन्द्र कानून बनायेगा तो वही अंब्रेला लॉ होगा, तब राज्यों के बने कानून निष्प्रभावी होंगे या विलय हो जाएंगे।भारत में गोवा के अलावा कहीं भी यह कानून लागू नहीं है गोवा में भी तब लागू हुआ था जब गोवा में पुर्तगाल का शासन था और गोवा भारत का हिस्सा नहीं था। संविधान के भाग 3 मूलाधिकारो में संशोधन करना आसान नहीं ?क्या संविधान संशोधन माननीय सुप्रीम कोर्ट में वैधानिकता पायेगा ?
अनुच्छेद 368 में संसद को असीमित शक्तियां नहीं हैं।
    “समान नागरिक संहिता/यूनिफॉर्म सिविल कोड को सरल भाषा में समझे तो भारत के हर नागरिक के लिए एक समान कानून हो, चाहे वह किसी भी जाति,धर्म,का हों समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक, दत्तक ग्रहण, संपत्ति आदि में सभी धर्मों के लिए एक समान कानून की परिकल्पना है, तो ऐसे में यदि यह कानून इतना ही देश हित प्रदेशहित और जनहित में है तो फिर केंद्र सरकार स्कूल आने में पीछे क्यों हट रही है।
    भारत विविधताओं का देश है, यहा अतीत से ही धर्म पर आधारित पर्सनल लॉ बने हुए है, जैसे हिन्दू पर्सनल लॉ के तहत: हिन्दू दत्तक ग्रहण एवम भरण पोषण अधिनियम 1956, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956,(संशोधित 2005) आदि वैसे ही मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी अनेकों निजी कानून है, जिनमे कुछ कोडीफाइड नहीं है।समान नागरिक संहिता लागू करने से पहले सभी पर्शनल लॉ को संशोधित या समाप्त करना होगा।दसौनी ने धामी सरकार से पूछा की संविधान के भाग 3 मूलाधिकार (अनुच्छेद 12से 35तक) जो आधारभूत ढांचे है,इसमें कैसे संशोधन होगा?
    दसौनी ने कहा चुकीं संविधान के भाग चार को भारत का अधिकार पत्र(Magna Carta) भी कहा जाता है ।
भारतीय संविधान के भाग 3 में मूलाधिकार (अनुच्छेद 12से35 तक) में प्रदत्त अधिकार, नागरिकों के मूलाधिकार है, इन्हे अनुच्छेद 368 के तहत ही संसद द्वारा बहुमत से संशोधित तो किया जा सकता है, किंतु मूलाधिकार संविधान का बेसिक स्ट्रक्चर है, इसे बदले या छेड़छाड़ किए बिना संसद कोई कानून बना सकती है।
       संविधान में संसद को संशोधन की शक्ति विस्तृत है, किंतु असीमित नही है, संसद इस शक्ति का प्रयोग करके संविधान के आधारभूत ढांचे में परिवर्तित नहीं कर सकती है। राज्य को समान नागरिक संहिता लागू करने का अधिकार तो है, पर केवल राज्य ही क्यों केन्द्र सरकार क्यों बच रही समान नागरिक संहिता कानून लाने से, उत्तराखंड सरकार को चाहिए की सभी हितधारको को भरोसे में लिए बिना समान नागरिक संहिता को थोपे नहीं, यदि समाज के सभी वर्ग/हितधारक स्वीकार करे तो ही इसे अपनाए, यह स्वैच्छिक होना चाहिए अनिवार्य नहीं, जबरन थोपने से देश का ताना बाना बिगड़ सकता है, और न्यायालयो में वादों की संख्या घटेगी नही अपितु बढ़ेगी,
          अनेकों कानूनों को संसद द्वारा रद्द करना होगा, या उनमें आमूल चूल परिवर्तन करना होगा, यह एक जटिल कार्य है, इसमें हमारे संविधान की उद्देशिका के मूलभूत सिद्धांत प्रभुत्तसम्पन्न,लोकतंत्रात्मक,पंथ निरपेक्ष,समाजवाद, अखंडता, न्याय, स्वतंत्रता, बंधुत्व, समानता, आदि को ठेस पहुंच सकती है। दसौनी ने कहा की इस विषय को राजनीति के लाभ हानि से हटकर सर्वदलीय, सर्वपक्षीय , विधि के जानकारों समाज के प्रबुद्ध नागरिको से विमर्श के बाद लोक सभा, राज्य सभा में परिचर्चा के बाद ही लाया जाना चाहिए ताकि संपूर्ण देश में एक जैसा कानून लागू हो सके, राज्यों में तो यह केवल समय की बर्बादी और समाजिक ताने बाने में उथल पुथल मचा कर सौहार्द बिगड़ने और विधि के शासन की भावना को ठेस पहुंचाने जैसा ही है।