उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने कर्मचारियों के विनियमितीकरण के लिए सरकार द्वारा 2013 में बनाई नियमावली को चुनौती देती याचिकाओं को निस्तारित करते हुए 4 दिसम्बर 2018 से पूर्व के दैनिक वेतन, तदर्थ व संविदा कर्मियों के साथ नियमित नियुक्ति वालों को नियमित ठहराया है। जबकि न्यायालय ने शेष कर्मचारियों को 2013 की नियमावली के अनुसार दस साल सेवा दैनिक वेतन, संविदा में पूरी होने के बाद ही नियमित करने को कहा है ।

न्यायालय ने सरकार की 31दिसम्बर 2013 की नियमावली के क्रियान्वयन पर 4 दिसम्बर 2018 में रोक लगाते हुए सरकारी विभागों, निगमों, परिषदों और अन्य सरकारी उपक्रमों में कार्यरत दैनिक वेतन कर्मचारियों के नियमितीकरण पर रोक लगा दी थी। तब से नियमितीकरण की प्रक्रिया बन्द थी ।मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रितु बाहरी और न्यायमूर्ति आलोक वर्मा की खंडपीठ ने नैनीताल जिले के सौड़ बगड़ निवासी नरेंद्र सिंह बिष्ट, हल्द्वानी के हिमांशु जोशी व अन्य की याचिका पर सुनवाई की।

याचिकाकर्ताओं के अनुसार निगमों, विभागों, परिषदों और अन्य सरकारी उपक्रमों में बिना किसी चयन प्रक्रिया के कर्मचारियों का नियमितीकरण किया जा रहा है, जिससे उनका हित प्रभावित हो रहा है। इस मामले में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उमा देवी बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में दिए निर्देशों के क्रम में 2011 में कर्मचारी नियमितीकरण नियमावली बनाई। इसके तहत 10 वर्ष या उससे अधिक समय से दैनिक वेतन, तदर्थ, संविदा में कार्यरत कर्मियों को निमित करने का फैसला लिया। लेकिन, राज्य गठन के बाद बने नए विभागों में दैनिक वेतन, तदर्थ अथवा संविदा में कार्यरत कर्मचारी इस नियमावली में नहीं आ सके।

सरकार ने 31 दिसम्बर 2013 को एक नई नियमावली जारी की जिसमें कहा गया कि दिसम्बर 2008 में जो कर्मचारी 5 साल या उससे अधिक की सेवा पूरी कर चुके हैं उन्हें नियमित किया जाएगा। जबकि कई याचिकाकर्ताओं ने इसे 5 साल के बजाय 10 साल करने की मांग की। इसे सरकार ने बाद में 10 साल कर दिया था।

मामले में पक्षों को सुनने के बाद मुख्य न्यायधीश की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने इन सभी याचिकाओं को निस्तारित करते हुए निर्णय दिया कि 4 दिसम्बर 2018 से पूर्व जिन कार्मिकों को नियमितीकरण किया जा चुका है, उन्हें नियमित माना जाए और अन्य को दस वर्ष की दैनिक वेतन के रूप में सेवा करने की बाध्यता के आधार पर नियमित किया जाए।

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