कैबिनेट मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल ने भले ही सदन में दिए अपने बयान के लिए माफी मांग ली है। लेकिन इसे लेकर घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा है। प्रदेशभर में उनके इस्तीफे की मांग हो रही है। इस मामले को लेकर जमकर बयानबाजी भी की जा रही है। इसी बीच वरिष्ठ पत्रकार दाताराम चमोली का बयान भी इसे लेकर सामने आया है। उनका कहना है कि प्रेमचंद अग्रवाल पहाड़ को नहीं समझे लेकिन भाजपा जरूर समझना चाहिए।
दाताराम चमोली का कहना है कि पहाड़ जितने ऊंचे हैं, उतने ही गहरे भी हैं। यहाँ के आदमी वैचारिक स्तर पर जितने ऊंचे उठते हैं, उतनी ही उनकी सोच में गहराई भी होती है, लेकिन लगता है कि पहाड़ को समझने की कोशिश न तो उत्तराखंड सरकार के सबसे ताकतवर मंत्री प्रेम चंद अग्रवाल ने की और न अब भाजपा ही समझना चाहती है। यही वजह है कि लोकतंत्र के मंदिर सदन के भीतर निसंकोच पहाड़ के लिए अपमानजनक शब्द कहने वाले और द्वेषपूर्ण भावना व्यक्त करने वाले राज्य के ताकतवर मंत्री प्रेम चंद अग्रवाल के विरुद्ध भयंकर जनाक्रोश उमड़ने के बावजूद वे मंत्रिमंडल में बने हुए हैं। वे अपनी बात को सही ठहराने पर तुले हुए हैं। आश्चर्यजनक है कि भाजपा के आला नेता उल्टे जनता को धमका रहे हैं कि जो भी इस मामले में कुछ बोलेगा उस पर नजर रखी जा रही है, उस पर कार्रवाई होगी। ये तो वही बात हुई कि ‘चित भी मेरी और पट भी मेरी।’ दूसरे शब्दों में यूं भी कह सकते हैं कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस।’
ठीक है कि आपको पहाड़ के आदमी के वैचारिक स्तर और उसके चिंतन की गहराई से कोई वास्ता न हो, लेकिन कम से कम इतना तो अवश्य पता होगा कि सदियों से पहाड़ और मैदान का अटूट रिश्ता है। शाब्दिक दृष्टि से देखें तो तराई का अर्थ पहाड़ के नीचे का वह समतल मैदानी भू-भाग होता है, जो जीवन जीने के लिए बहुत अनुकूल होता है यानी कृषि की दृष्टि से उपयोगी साबित होता है। कौन नहीं जानता कि सदियों से नदियों के रास्ते पहाड़ से बहकर आने वाली मिट्टी मैदानी भागों में कृषि के लिए वरदान साबित होती रही है।
पहाड़ और मैदान का यह प्रकृति प्रदत्त संबंध युगों से चला चला आ रहा है। पहाड़ है, तो मैदान खुशहाल है। पहाड़ बचा रहेगा तो मैदान भी बचा रहेगा। इसी भावना से पृथक राज्य की माँग की गई थी। विकास की गंगा ऊपर से नीचे की ओर यानी सही दिशा में बहाने वाली भावना थी। आज यदि विकास की ऐसी संतुलित योजनाएँ नहीं बनाई जाती जिनसे हिमालय का प्राकृतिक वातावरण बचा रहे और सदियों से हिमालय की हर तरह से रक्षा करते आ रहे पहाड़वासी भी अपनी पैतृक जगहों पर बसे रहें, तो फिर भविष्य में हिमालय के लिए गंभीर खतरे की प्रबल आशंकाएं रहेंगी। राष्ट्र के लिए हिमालय और गंगा का बचा रहना बेहद जरूरी है और पहाड़वासी वर्षों से इसमें अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं।
सामरिक दृष्टि से बात करें तो यहां के नागरिकों ने सीमाओं को जागृत रखा हुआ है। सेना को वे सहयोग करते रहे हैं। पिथौरागढ़ जिले के निवासी पंडित नैन सिंह रावत ने ब्रिटिशकाल के दौरान बिना किसी साधन के तिब्बत का नक्शा तैयार किया था। इसी जिले के सुरेन्द्र सिंह जंगपांगी तिब्बत में ट्रेवल एजेंट रहे। उन्होंने सन् 1950 में ही भारत सरकार को बता दिया था कि चीन अक्साई चीन तक सड़क ला रहा है और उसकी योजना भारत पर हमले की है।
ब्रिटिश काल से लेकर आज तक सीमा पर पहाड़ के वीर सैनिकों ने जिस अदम्य साहस का परिचय दिया उसकी सराहना दुनिया ने की है। विक्टोरिया क्रॉस, परमवीर चक्र महावीर चक्र सहित सैकड़ों शौर्य चक्र गढ़वाल और कुमाऊँ रेजीमेंट के नाम हैं। आजादी के राष्ट्रीय आंदोलन में पहाड़ के ऐतिहासिक योगदान को भला कौन भुला सकता है? कर्नल पितृशरण रतूड़ी के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज की टुकड़ी ने आराकान में अंग्रेजों को संगीनों के बल पर घुटने टिकवा दिए थे। इस टुकड़ी में लगभग सभी जवान पहाड़ के थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने बाकायदा इन जवानों को बधाई दी थी। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में हुई पेशावर क्रांति की तब दुनियाभर के लोगों ने प्रशंसा की थी।
आप राष्ट्र के विकास, राष्ट्र की रक्षा, गंगा और हिमालय की रक्षा में पहाड़ के योगदान को दरकिनार भी कर सकते हैं, लेकिन यह तो याद रखना ही पड़ेगा कि गंगा की जो संस्कृति आज देश में बह रही है, उसका उद्गम स्थल यही पहाड़ है। हिंदुत्व के आधार स्तंभ आपको और भावी पीढ़ियों को पहाड़ में ही खोजने पड़ेंगे। गंगा और हिमालय हिंदुत्व के आधार स्तंभ हैं। मध्य हिमालय उत्तराखंड में महर्षि वेद व्यास ने गणेश जी के लेखन सहयोग से वेद-पुराणों की रचना की। गंगा-यमुना, सरस्वती जैसी नदियों के उद्गम स्थल यहीं है। जिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम को राष्ट्र के लोग अपना आदर्श मानते हैं, उन्हें ब्रह्महत्या के पाप से देवप्रयाग में ही मुक्ति मिली। कमलेश्वर महादेव में विष्णुजी ने शिवजी को एक सहस्त्र कमल पुष्प अर्पित किए थे, तो किलकिलेश्वर महादेव में अर्जुन को पाशुपात अस्त्र की प्राप्ति हुई थी। उत्तर भारत की आराध्य देवी पूर्णागिरी यहीं विराजमान हैं। नंदा देवी राजजात जैसी विश्व की सबसे लंबी धार्मिक यात्रा यहीं निकलती है। कोणार्क जैसा सूर्य मंदिर कटारमल में है, तो देवप्रयाग के पास पलेठी में भी सातवीं सदी का सूर्य मंदिर है। राठ क्षेत्र में दैत्यों के सेनापति राहु तक का मंदिर है। महाशिव यानी महासू यहीं विराजमान हैं। बदरी-केदार, गंगोत्री, यमुनोत्री से तो विश्व का बच्चा-बच्चा परिचित है।
ज्ञान का केंद्र पहाड़ प्रचीन काल से ही रहा। यही कारण है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग और फाह्यान ने यहां की यात्रा की। आदि शंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद को यहां की धरती ने सम्मोहित किया। शंकाराचार्य ने तो बदरिकाश्रम में ज्योतिर्मठ की स्थापना भी कर डाली। विश्व कवि कालिदास सहित तमाम तपस्वियों और मनीषियों को देवभूमि ने दिव्य ऊर्जा प्रदान की। सनातन संस्कृति का अपार वैभव उत्तराखंड में भरा पड़ा है, यह अलग बात है कि आज विकास की नई परिभाएं गढ़कर इसे नष्ट किया जा रहा है। क्या इस अपार सनातन सांस्कृतिक वैभव की किसी बड़बोले, दंभी राजनेता या मंत्री के लिए उपेक्षा की जानी चाहिए? पहाड़ के सनातन वैभव या वहां की सनातन संस्कृति का सम्मान देश-दुनिया के लोग करते हैं, तो क्या मंत्री प्रेम चंद ने पहाड़ के प्रति जो द्वेषपूर्ण बातें कही उन्हें देश-दुनिया के लोग जायज ठहरा रहे होंगे? उम्मीद है कि भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व हिंदुत्व के अपने एजेंडे के तहत इस दिशा में अवश्य विचार करेगा।
पहाड़ की सनातन संस्कृति, सैन्य संस्कृति, राष्ट्रीय योगदान, पर्यावरण रक्षा में योगदान आदि को छोड़ भी दिया जाए तो किसी भी पार्टी के लिए सबसे अहम है पहाड़ का राजनीतिक वोट बैंक। भाजपा आलाकमान ये अच्छी तरह समझ ले कि उत्तराखंड से बेशक पांच सांसद लोकसभा के लिए चुने जाते हैं। लेकिन देश की करीब तीन दर्जन लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां पर पहाड़ के लोग निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। उम्मीद है कि मंत्री प्रेम चंद के मोह में भाजपा पहाड़ और पहाड़ की सनातन संस्कृति के प्रति अटूट आस्था रखने वाले देश-विदेश के लोगों की भावनाओं का सम्मान अवश्य करेगी। हां इस विषय में विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका पर भी तीव्र आक्रोश व्यक्त किया जा रहा है, लिहाजा उन्हें भी पद से हटाकर भाजपा कुछ हद तक डैमेज कंट्रोल कर सकती है।
लेख – वरिष्ठ पत्रकार दाताराम चमोली