राज्य का गठन 23 साल पहले 9 नवंबर, 2009 को हुआ था। यहां लगातार पांच कार्यकालों में से तीन बार भाजपा ने सरकार बनाई, जबकि कांग्रेस दो कार्यकाल तक सरकार चलाने में सफल रही इसके विकास की योजनाएँ बनाना शुरू कर दिया था, लेकिन सुदूर पहाड़ी क्षेत्रों के गाँवों के विकास को पूरी तरह से नज़रअंदाज कर दिया गया। युवाओं को प्रोत्साहित करने और स्थानीय रोजगार के अवसर पैदा करने, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, महिलाओं के सशक्तिकरण और बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं को मजबूत करने के लिए कौशल विकास इकाइयों की स्थापना सहित सर्वांगीण विकास के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए गए।

अन्य हिमालयी राज्य की अवधारणा का पालन करने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए और राज्य को कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की दया पर छोड़ दिया गया नए राज्य के निर्माण का मूल उद्देश्य विफल हो गया है। एक अच्छी तरह से परिभाषित विकासात्मक दृष्टि की कमी, शासन में कमियां, रोजगार के अवसरों की कमी, दूरदराज के क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल के लिए अपर्याप्त प्रावधान और लगातार राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने सामूहिक रूप से प्रगति में बाधा डाली है और लोगों की आकांक्षाओं पर पानी फेर दिया है। दो दशकों से अधिक की लम्बी यात्रा।

विवादास्पद भूमि कानून को उत्तराखंड भूमि संशोधन अधिनियम 2018 के रूप में जाना जाता है। इस अधिनियम के माध्यम से, भाजपा सरकार ने कृषि भूमि पर भूमि सीलिंग सीमा को कम कर दिया और वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए भूमि की तलाश करने वाले गैर-अधिवासित बाहरी लोगों पर प्रतिबंध हटा दिया। यह विवादास्पद संशोधन अलग पहाड़ी राज्य के लक्ष्य और उद्देश्यों के लिए एक बड़ा झटका था।

उत्तराखंड राज्य को बने हुए 23 साल हो चुके हैं, लेकिन स्थायी राजधानी का सवाल जस का तस है, सत्ता में बैठे राजनीतिक दलों ने जन भावनाओं को हवा देकर इस मुद्दे पर राजनीति तो जमकर की, लेकिन समाधान करने के बजाय इसे हर बार आगामी वर्षों या चुनाव तक के लिए टाला जाता रहा है । राज्य आंदोलन से उपजी जन भावनाओं ने गैरसैंण को स्थायी राजधानी के रूप में देखा, लेकिन कभी भी अंतिम परिणाम तक नहीं पहुंचा।

उत्तराखंड राज्य गठन के दौरान दो नये राज्यों का भी गठन हुआ,जहाँ राजधानी को लेकर कोई बहस नहीं है लेकिन उत्तराखंड में स्थायी और अस्थायी राजधानी के मुद्दे हर हमेसा बहस होती हुई नजर आती है, 9 नवंबर सन 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग एक राज्य का गठन किया जाता है जिसे उत्तराखंड कहा जाता है और राज्य को बने हुए 23 वर्ष से अधिक हो गए है, गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग राज्य बनने से 40 साल पहले 1960 कि है, तब इसकी मांग पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने की थी। गैरसैंण, गढ़वाल और कुमाऊं की सीमा पर स्थित है।

पहाड़ी राज्य का गठन जल, भूमि और जंगलों जैसे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के विचार पर आधारित था। स्वतंत्रता के बाद के युग में जब राज्यों का गठन और पुनर्गठन किया जा रहा था, तब क्षेत्र में सर्वांगीण विकास लाने के लिए एक अलग पहाड़ी राज्य बनाने की सामूहिक मांग उभरी। विशेषज्ञों और योजनाकारों ने पहाड़ी इलाकों की भविष्य की विकास संबंधी जरूरतों पर व्यापक विचार-विमर्श किया। संकट तब गहराने लगा जब गढ़वाल क्षेत्र के सुदूर पहाड़ी जिलों, जैसे कि पौरी गढ़वाल, चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी, देहरादून और कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ, अल्मोडा और नैनीताल जिलों से पलायन बढ़ने लगा।

विकास रणनीति का एक महत्वपूर्ण परिणाम दूरदराज के गांवों तक अपर्याप्त सड़क कनेक्टिविटी है, जो स्वास्थ्य देखभाल पहुंच में काफी बाधा डालती है। उचित परिवहन बुनियादी ढांचे की अनुपस्थिति गंभीर रोगियों, गर्भवती महिलाओं और बुजुर्गों को स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचने के लिए कठिन यात्राएं करने के लिए मजबूर करती है,हिमालय क्षेत्र में पिघलते ग्लेशियरों और बढ़ते शहरी प्रदूषण सहित नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र के प्रति सरकार की लापरवाही चिंताजनक है। पर्यटकों और तीर्थयात्रियों की अत्यधिक आमद, खासकर चारधाम यात्रा जैसे आयोजनों के दौरान, क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन के लिए गंभीर खतरा पैदा करती है।

दोनों मंडल के लोगों को सहूलियत होगी, इसी तर्क के आधार पर गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग की जाती रही है। हालांकि तत्कालीन भाजपा कि त्रिवेंद्र रावत सरकार ने 4 मार्च 2020 में गैरसैण को उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित तो कर दिया लेकिन स्थाई राजधानी कहां होगी इस सवाल का जवाब किसी के पास आज तक नहीं है, लेकिन राज्य के बजट सत्र 2024 के दौरान यह मुद्दा फिर गर्मा गया। पहले बजट सत्र गैरसैण में ना करने को लेकर पक्ष-विपक्ष के विधायकों की आपसी सहमति देखने को मिली। जो बजट सत्र के दौरान विधानसभा पटल पर भी गरमाया।

बजट सत्र के दौरान कर्णप्रयाग विधानसभा से भाजपा के विधायक अनिल नौटियाल ने बजट को लेकर अपनी बात रखते हुए मांग की कि 20 करोड़ के बजाय गैरसैण के लिए 100 करोड़ के बजट का प्रावधान किया जाए ताकि उसी हिसाब से गैरसैण में इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित किया जा सके, तो वहीं कांग्रेस से विधायक तिलक राज बेहड़ ने गैरसैण को लेकर अपना बयान देते हुए कहा कि सरकार ने गेरसैण के लिए बजट में 20 करोड़ का प्रावधान किया है तो वही स्थाई राजधानी देहरादून के लिए भी बजट में प्रावधान किया जाना चाहिए, उन्होंने कहा कि देहरादून को स्थाई राजधानी बना देना चाहिए, और देहरादून के अंदर सरकार को जमीन तलाशनी चाहिए

कांग्रेस विधायक के बयान के बाद से एक बार फिर गैरसैण को लेकर सियासत गरमा गई है, और सवाल भी इसलिए खड़ा होता है क्योंकि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के दौरान अपने घोषणा पत्र में इसे राजधानी बनाने का संकल्प लिया था, वही राज्य आंदोलन के दौरान लोगो कि भावना राजधानी के रूप में गैरसैण के साथ थी लेकिन राज्य बनने के बाद से सरकारे इस मुद्दे को लटकाती रही है हालांकि भाजपा ने इसे ग्रीष्मकालीन राजधानी जरूर घोषित किया है.। वही तिलक राज बेहड पर पलटवार करते हुए भाजपा से विधायक विनोद चमोली ने कहा कि कांग्रेस के मुद्दे स्पष्ट नहीं है, और कांग्रेस का अपने विधायकों पर नियंत्रण नहीं है,

कर्णप्रयाग विधानसभा स्थित उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैण में सत्र ना कराए जाने को लेकर विपक्ष लगातार सवाल खड़े कर रहा था, और इसे राज्य आंदोलन के शहीदों का अपमान बता रहा था तो वही विपक्ष के विधायक कि मांग के बाद विपक्ष कि मंशा भी साफ होती दिख रही है वहीं वित्त मंत्री और संसदीय कार्य मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल ने तिलक राज बेहड के बयान पर कहा कि कांग्रेस एक कन्फ्यूजन पार्टी है, जब देहरादून में बजट सत्र हो रहा था तो कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गैरसण में प्रतीकात्मक सत्र करते हैं और उन्हीं के विधायक यहां पर स्थाई राजधानी की मांग कर रहे हैं।

विकास में इस बदलाव का एक महत्वपूर्ण पहलू उत्तराखंड के लिए स्थायी राजधानी स्थापित करने में विफलता है। गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की मंशा के बावजूद राज्य अभी तक कोई निश्चित प्रशासनिक केंद्र निर्धारित नहीं कर पाया है। देहरादून, जिसे शुरू में एक अस्थायी राजधानी के रूप में नामित किया गया था, अब वास्तविक प्रशासनिक केंद्र बन गया है। हालाँकि, इसका स्थान केंद्रीय रूप से स्थित नहीं है और असुविधाजनक रूप से स्थित है, जो कि कई पश्चिमी उत्तराखंड जिलों, जैसे कि पिथौरागढ, चंपावत, नैनीताल और अल्मोडा को इसकी प्रशासनिक पहुंच से बाहर रखता है।

23 साल बाद भी उत्तराखंडवासी राजधानी कि बहस में लगे हैं तो यह राजनीतिज्ञों की गंभीरता को भी दर्शाता है। गैरसैण में विधानसभा सत्र की शुरुआत 2014 में हुई थी और तब से लेकर अब तक गैरसैण में सत्र कुल 30 दिन ही चला है हालांकि इस बार बजट सत्र गैरसैण में न कराए जाने को लेकर सत्ता पक्ष के विधायकों के साथ साथ विपक्षी विधायकों के सुर भी गैरसैण में सत्र न करवाने को लेकर दिखे, जब पहाड़ के चुने हुए प्रतिनिधि ही पहाड़ चढ़ने को तैयार नहीं तो वह पहाड़ के आम व्यक्ति की पीड़ा को कैसे समझेंगे? जब खुद विधायक पलायनवाद को बढ़ावा दे रहे हैं तो कैसे पहाड़ में शिक्षा,स्वास्थ्य, रोजगार, जैसे मुद्दों ओर चर्चा करेंगे और खंडहर होते हुए गांव को पलायन होने से कैसे बचा पाएंगे