उत्तराखंड का मूल निवासी कौन?
उत्तराखंड राज्य की मूल अवधारणा को समाप्त किया जा रहा है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद उत्तराखंड के लोगों को था राज्य उत्तराखंड के अनूकूल होगा लेकिन हुआ ठीक उल्टा । राज्य के लोगों को अपने हकों को लेकर समय समय पर चिंतित रहते हैं। राज्य अभी मूल निवास और स्थायी निवास की अवधारणा में फंसा है। राज्य बनता है तो राज्य के लोगों को इसका फायदा हो इसीलिए राज्य गठन किए जाते हैं। लेकिन उत्तराखंड राज्य आज भी मूल निवास और स्थायी मैं उलझा हुआ यह पढ़िए शंखनाद इंडिया की यह रिपोर्ट
उत्तराखंड का मूल निवासी कौन? यह विवाद इस राज्य के गठन के समय से ही जारी है. राज्य के गठन के समय उत्तराखंड में रह रहे लोग ही यहां के मूल निवासी माने जाएंगे. सर्वोच्च न्यायालय ने मूल निवास, स्थाई निवास व जाति प्रमाण पत्र बनवाने के लिए हर उस व्यक्ति को पात्र माना जो 1985 से उत्तराखंड राज्य (राज्य का गठन 2000 में हुआ) में निवास कर रहा है। 17 अगस्त 2012 को नैनीताल उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि जो व्यक्ति राज्य गठन के समय नौं नवम्बर 2000 से निवास कर रहा है उसे मूल, स्थाई निवास के साथ ही जाति प्रमाण पत्र पाने का अधिकार है।25.05.2013 को उच्च न्यायालय की डबल बेंच ने एकल पीठ के इस निर्णय में बदलाव करते कट-आफ-डेट केरूप में वर्ष 1985 को समय सीमा माना।
क्योंकि इस बात का दबाव था कि जो व्यक्ति 1950 से राज्य में रह रहा है उसे ही यह हक मिले। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद चार मैदानी जिलों में वास करने वाली राज्य की लगभग 40 फीसदी आबादी को इसका लाभ मिलेगा। संवैधानिक आदेश 1950 के तहत जिन जातियों को एससी/एसटी/ओबीसी की श्रेणी में रखा गया है, अगर वे राज्य गठन से पूर्व उत्तराखंड में बसे हैं तो उन्हें राज्य की किसी भी सुविधा से वंचित नहीं किया जा सकता. मूल निवासी का अर्थ यह नहीं है कि जिसके पूर्वज भौगोलिक क्षेत्र उत्तराखंड में रहते हों, वही यहां का मूल मूल निवासी का अर्थ यह नहीं है कि जिसके पूर्वज भौगोलिक क्षेत्र उत्तराखंड में रहते हों,वही यहां का मूल निवासी होगा,
2018 के बाद प्रदेश में समूह ग की नौकरियां के लिए सेवायोजन पंजीकरण की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है।
बेरोजगार हाथों को काम देने की मांग पर बने अलग उत्तराखंड प्रदेश में सरकारी नौकरी हासिल करने के लिए राज्य का स्थायी या मूल निवासी होने की कोई शर्त नहीं है। यहां तकनीकी तौर पर समूह-ग स्तर तक की नौकरियां देशभर के युवाओं के लिए खुली हुई हैं। अधिकारी स्तर पर समूह ख की भर्तियां लोक सेवा आयोग करवाता है, लोक सेवा आयोग के सभी पद देशभर के लिए खुले होते हैं। इसमें विभिन्न राज्यों के युवाआबेदन करते हैं। इसके बाद समूह-ग स्तर की भर्तियां उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयत्र आयोग करता है।
उत्तराखंड में रह कर स्कूली पढ़ाई करने वाले युवा भी आवेदन कर सकते हैं?
2018 तक समृह-ग की भर्तियों में आवेदन कल लिए प्रदेश के सेवायोजन कार्यालय में पंजीकरण अनिवार्य होता था। सेवा योजना पंजीकरण, स्थायी निवास प्रमाणपत्र के आधार पर होता था, इस तरह समूह-ग की नौकरियां एक तरह से राज्य के युवाओं के लिए आरक्षित थी। लेकिन 2018 के बाद प्रदेश में समूह ग की नौकरियों के लिए सेवायोजन पंजीकरण की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है। अब इसके स्थान पर उत्तराखंड में स्थित किसी भी स्कूल से दसवीं, 12वीं करने वाले युवा राज्य की नौकरियों के लिए आवेदन कर सकते हैं। निजी स्कूलों की बहुतायत के कारण उत्तराखंड में देशभर से बड़ी संख्या में छात्र पढ़ाई के लिए आते हैं, ऐसे में तकनीकी तौर पर देशभर के युवा उत्तराखंड में समूह ग की नौकरियो के लिए आवेदन कर सकते हैं।
इसके साथ ही ऐसे युवा भी समूह ग की नौकरियों के लिए आवेदन कर सकते हैं, जिनके अभिभावक उत्तराखंड में सरकारी सेवाएं दे रहे हों। जबकि हिमाचल पड़ोसी राज्य हिमाचल और उत्तराखंड के साथ गठित झारखंड में समूह ग स्तर की नौकरियों में राज्य निवासी को प्राथमिकता दी जाती है। झारखंड में समूह ग की नौकरियों के लिए जनजातीय भाषा की परीक्षा भी पास करनी होती है, जिसमें 42 जनजातीय भाषा शामिल हैं।
मूल निवसियों के हित सुरक्षित करे प्रदेश सरकार?
इस बारे में अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के पूर्व अध्यक्ष और रिटायर्ड आईएफएस आरबीएस रावत कहते हैं कि समूह ग और घ की नौकरियों के लिए नियम शर्त तय करने का अधिकार राज्य सरकार को हासिल है। रावत के मुताबिक दक्षिण के कई राज्य इस मामले में अपने के हितों के लिए खासे जागरुक हैं। तमिलनाडू तो नीट का विरोध ही इस आघार पर कर रहा है कि इससे वहां के युवाओं के हित प्रभावित हो रहे हैं। रावत के मुताबिक हमारी भौगालिक परिस्थियों के चलते कल हमारे पास रोजगार के सीमित अवसर है, यहीं कारण है कि उत्तराखंड के लोग परंपरागत रूप से सरकारी नौकरियों में अपनी आबादी के तुलना में अधिक स्थान रखते है इस कारण सरकार को कम से कम समूह ग की नौकरियों के लिए निवास की शर्त लागू करनी चाहिए साथ ही पाठ्यक्रम को उत्तराखंड आधारित करना होगा।
एडवोकेट चंद्र शेखर करगेती मूल निवास पर क्या कहते हैं पढ़िए उनकी यह रिपोर्ट भी संलग्न है
मूल निवास का शासनादेश राज्य की अवधारणा का विरोधी
राज्य सरकार ने मूल ओर स्थायी निवास को एक मानते हुए कट ऑफ डेट 1985 मानी है। वह कही भी संवैधानिक नही है। पूरे देश मे मूल निवासी के लिए कट आफ डेट 1950 है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि मूल निवासी के लिए 1950 ही कट आफ डेट मानी जाएगी। यहां त कि उत्तराखंड के साथ बने राज्यों झारखंड और छत्तोसगढ में भी मूल निवासी के लिए अलग से कोई व्यवथा नही है लेकिन उत्तराखंड में ही ऐसी व्यवस्था को गई है। इस नियम के गंभीर परिणाम सामने आएंगे और बह पहाड़ और तराई के बीच खाई को और ज्यादा बढ़ाने बाला साबिात होगा। सससे ज्यादा समस्या उत्तराखंड के उन मूल निवासियों को आने वाली है जो पीढ़ी दर पीढ़ी रह रहे हैं। रोजगा, शिक्षा स्वास्थ, भूमिा और अन्य संसाधन उनके हाथ से निकल जाएंगे। इससे राज्य मे पलायन बढ़ेगा।
राज्य आन्दोलन को उत्तर प्रदेश में लागू 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण भी एक बड़ा कारण था। क्योकि यहां ये जातियां थो ही नहीं लेकिन अब सरकार ने पिछले दरवाजे से उस व्यवस्था को स्वोकार का लिया है। सबसे बढ़ी समस्या उन लोगों के लिए आएगी नो बाहर चले गए हैं। उनके पास भूमि नहीं होगी तो उन्हें खुद को मूल निवासी बता पाना कठिन होगा।
रोजगार प्रभावित होगा
मूल निवास शासनादेश के कारण सेना और समूह ग में मिलने वाले रोजगार प्रभावित होगा। सेना में कुमांउनी और गढ़वाली नहीं है क्योंकि अब वू भी मूल निवास प्रमाणपत्र बना सकेंगे। इसमें वास्तविक मूल निवासियों के सेना में जाने के अवसर कम ही आयेगे। इसके अलावा समूह ग की भर्ती में स्थानीय लोगों का रोजगार कम जो जायेगा। इस श्रेणी की भर्ती में मूल निवासी होना अनिवार्य है।
दोहरा लाभ लेंगे बाहरी लोग.
राज्य के बाहर के लोगों को इस आदेश के बाद दोहरा लग मिलेगा। ये जिस राज्य के भी होगे वे संवैधानिक व्यवस्था के तहत वहां के मूल निवासी तो बने ही रहेगे, अब वे उत्तराखण्ड में भी मूल निवासी माने जायंगे। इस तरह वे अपने राज्य और उत्तराखण्ण्ड दोनों जगहों पर लाभ में रहेंगे। इस प्रक्रिया मेें कोई व्यक्ति यदि 1985 से पहले किराए में रह रहा था तो वह मूल निवासी की श्रेणी में आ जायेगा।
भूमि की खरीद फरोख्त होगी तेज।
मूल निवास बनने के बाद भूमि खरीदना लोगों के लिए आसान हो जायेगा। इससे कृषि भूमि की बिक्री भी ज्यादा तेजी से होगी। जो अब तक मूल निवास प्रमाणपत्र न होने के कारण बची हुई थी।