उत्तराखंड विधानसभा देश की सबसे कम सक्रिय विधानसभाओं में शामिल, एसडीसी फाउंडेशन ने जारी की डेटा आधारित फैक्टशीट
2024 में उत्तराखंड विधानसभा केवल 10 दिन चली, देश में सबसे कम बैठकों में से एक
2024 में 31 राज्यों में उत्तराखंड का स्थान संयुक्त रूप से 26/27/28वां, 2023 में था अंतिम 28वां स्थान
उत्तराखंड जब अपना रजत जयंती वर्ष मनाने की तैयारी कर रहा है, देहरादून स्थित पर्यावरण एवं नीतिगत एक्शन और एडवोकेसी समूह एसडीसी फाउंडेशन की एक नई डेटा आधारित रिपोर्ट ने राज्य की विधानसभा के कामकाज पर गंभीर सवाल उठाए हैं।
राष्ट्रीय आंकड़ों के अनुसार, 2024 में देश के 31 राज्यों की विधानसभाओं के सत्र औसतन 20 दिन चले, जबकि उत्तराखंड विधानसभा मात्र 10 दिन ही चली। पड़ोसी हिमाचल प्रदेश की विधानसभा 125 घंटे चली, जबकि उत्तराखंड की कुल बैठक अवधि सिर्फ 60 घंटे रही, जिससे राज्य 2024 में 28 में से 22वें स्थान पर रहा।
एसडीसी फाउंडेशन ने “उत्तराखंड विधानसभा का तुलनात्मक प्रदर्शन: गैप्स एंड चैलेंजेस” शीर्षक से एक फैक्टशीट जारी की है। यह रिपोर्ट पूरी तरह डेटा आधारित है और इसमें पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की वार्षिक रिपोर्टों का उपयोग किया गया है जो लोकतांत्रिक शासन और डेटा विश्लेषण पर कार्य करने वाला एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगठन है। इस रिपोर्ट में गत वर्षों के दौरान उत्तराखंड की विधानसभा के प्रदर्शन की तुलना अन्य राज्यों से की गई है, जिसमें विधायी कार्य, जवाबदेही और लोकतांत्रिक भागीदारी में गिरावट के संकेत सामने आए हैं।
मुख्य निष्कर्ष साझा करते हुए एसडीसी फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल ने कहा कि यह गहरी चिंता का विषय है कि उत्तराखंड विधानसभा के सत्रों की संख्या और अवधि दोनों ही देश में सबसे कम श्रेणी में हैं। लोकतंत्र की आत्मा जवाबदेही में निहित है और जब हमारी सरकार व जनप्रतिनिधि साल में मुश्किल से कुछ ही दिन मिलते हैं, तो यह शासन और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी के घोर संकट को दर्शाता है।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार, जिसने वर्ष 2024 में भारत के 31 राज्यों की विधानसभाओं के कामकाज का विश्लेषण किया, उत्तराखंड उन राज्यों में शामिल रहा जिनकी विधानसभा बैठकों की संख्या सबसे कम में रही।
रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में ओडिशा विधानसभा 42 दिनों तक चली, जो सूची में शीर्ष पर रही। इसके बाद केरल (38 दिन), पश्चिम बंगाल (36), कर्नाटक (29), राजस्थान और महाराष्ट्र (28-28), हिमाचल प्रदेश (27), छत्तीसगढ़ (26), दिल्ली (25), तेलंगाना और गोवा (24-24), गुजरात और बिहार (22-22), झारखंड (20), आंध्र प्रदेश (19), तमिलनाडु और मिज़ोरम (18-18), असम (17), उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश (16-16), मणिपुर (14), मेघालय और हरियाणा (13-13), पुडुचेरी (12) और त्रिपुरा (11) रहे।
इसके विपरीत, उत्तराखंड, पंजाब और अरुणाचल प्रदेश ने पूरे वर्ष में केवल 10 दिन की बैठकें कीं। इस प्रकार, 31 राज्यों में उत्तराखंड का स्थान संयुक्त रूप से 26वां, 27वां और 28वां रहा, जो एक बार फिर राज्य को विधायी गतिविधियों के मामले में निचले पायदान पर रखता है।
डेटा यह भी दर्शाता है कि 2023 में उत्तराखंड ने केवल 7 दिन के सत्र आयोजित किए थे जो देश में सबसे कम थे और कुल 44 घंटे की बैठकें हुईं। 2017 से 2024 के बीच उत्तराखंड विधानसभा औसतन हर वर्ष मात्र 12 दिन ही चली, जबकि केरल (44 दिन), ओडिशा (40 दिन) और कर्नाटक (34 दिन) रहे।
अनूप नौटियाल ने कहा कि यह अनवरत कमज़ोर प्रदर्शन उत्तराखंड को देश की सबसे कम सक्रिय विधानसभाओं में रखता है। उन्होंने आगे कहा कि विधानसभा केवल औपचारिकता के लिए नहीं बल्कि विधायी कार्यों, कानून पारित करने और नीतिगत और जनहित के विषयों पर बहस के लिए होती है।
उन्होंने कहा कि सरकार अक्सर यह कहकर बचती है कि विधानसभा में चर्चा के लिए कोई बिजनेस नहीं है लेकिन सच्चाई यह है कि राज्य में सैकड़ों ऐसे मुद्दे हैं जिन पर नीतिगत और विधायी हस्तक्षेप की जरूरत है।
अनूप नौटियाल ने यह भी सवाल उठाया कि आगामी विशेष सत्र 3 और 4 नवंबर को देहरादून में आयोजित करने की बजाय गैरसैंण में क्यों नहीं किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि यदि सत्र गैरसैंण में होता, तो इसका प्रभाव और वैधता कहीं अधिक होती।
अपनी टिप्पणी समाप्त करते हुए अनूप नौटियाल ने कहा कि उत्तराखंड को अब “उत्सव के राज्य” से “जवाबदेही और कार्रवाई के राज्य” में रूपांतरित होना होगा। उन्होंने कहा कि आने वाले समय में उत्तराखंड की विधानसभा को केवल समारोहों का मंच नहीं, बल्कि जिम्मेदारी का मंच बनना होगा।
उन्होंने जोड़ा कि उत्तराखंड 25 वर्ष का हो रहा है और यह आत्ममंथन का समय है। उन्होंने सवाल किए कि क्या राज्य ने वास्तव में सक्रिय, पारदर्शी और जवाबदेह लोकतंत्र स्थापित किया है जिसका सपना राज्य आंदोलन ने देखा था। उन्होंने कहा कि अब सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे और उम्मीद जताई कि उत्तराखंड की जनता सरकार और जनप्रतिनिधियों से अधिक जवाबदेही की मांग करेगी।
