शंखनाद INDIA/योगेश भट्ट/उत्तराखंड-: दो महीने होने जा रहे हैं नए कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली बार्डर पर चल रहे किसान आंदोलन को, तकरीबन इतने ही दिन से उत्तराखंड के सीमांत चमोली जिले के घाट क्षेत्र में एक अदद सड़क की मांग को लेकर आंदोलन चल रहा है । इन दोनो आंदोलनों को एक साथ देखें तो उत्तराखंड की ताकतवर त्रिवेंद्र सरकार कटघरे में नजर आती है ।
आप सोच रहे होंगे कि दिल्ली बार्डर पर चल रहे किसान आंदोलन और चमोली के घाट में चल रहे सड़क आंदोलन का आपस में क्या सरोकार हो सकता है ? सरोकार है, मौजूदा परिदृश्य में दोनो आंदोलनों का गहरा सरोकार एक ऐसी ताकतवर सरकार से है जो जनता के प्रति संवेदनशील होने का दम भरती है । यह सरोकार सरकार की मंशा, उसकी प्राथमिकता और जनता के प्रति संवेदनशीलता से तो है ही, उस आशंका से भी है जो दिल्ली बार्डर पर बैठा किसान जता रहा है।
दरअसल दिल्ली बार्डर पर आंदोलन कर रहा किसान नए कृषि कानून में खेती की जमीन को लीज पर दिए जाने और कांट्रेक्ट फार्मिंग की जिस व्यवस्था को लेकर आशंकित है, वह व्यवस्था तो उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सरकार खेती किसानी के हक में बताते हुए साल भर पहले यह कहकर कर चुकी है कि इससे राज्य के लोगों की आमदनी बढ़ेगी और पलायन रुकेगा ।
यह अलग बात है कि साल भर में न किसानों की आमदनी बढ़ी और न पलायन ही रुका । सरकार की संवदेनशीलता का हाल यह है कि दो-दो मुख्यमंत्रियों की घोषणा के बावजूद सरकार घाट क्षेत्र की सडक चौड़ी नहीं करा पा रही है।
आज किसान आंदोलन और राज्य के सीमांत क्षे़त्र में सड़क के लिए चलाए जा रहे आंदोलन के आलोक में देखें तो साफ है कि उत्तराखंड के साथ छल हो रहा है । दोनों आंदोलन इस बात का प्रमाण हैं कि ताकतवर सरकार जनता की नहीं, कॉरपोरेट और पूंजीपतियों की होती है । सही भी है, सरकार जनता की होती तो उत्तराखंड में कांट्रेक्ट खेती के बजाय पहाड में चकबंदी कराती । सरकार जनता की होती तो एक सड़क को चौड़ी कराने के लिए गांवों के लोगों की 19 किलोमीटर तक मानव श्रंखला नहीं बनानी पड़ती।
बहरहाल उत्तराखंड की प्रचंड बहुमत वाली सरकार कटघरे में है । सवाल तो बहुत हैं मगर इस वक्त मौजूं सवाल सरकार की मंशा से जुड़ा है। यहां स्पष्ट कर दें कि बीते साल 21 जनवरी को सरकार ‘उत्तर प्रदेश जमीदारी उन्मूलन भू-सुधार कानून 1950’ में संशोधन करते हुए प्रदेश में 30 एकड़ तक कृषि भूमि किसी भी व्यक्ति, संस्था या कंपनी को लीज पर दिये जाने की व्यवस्था कर चुकी है ।
यह बात अलग है कि सरकार के इस फैसले का न विपक्ष ने विरोध किया और न जनता की ओर से ही कोई सवाल उठा । विरोध आखिर होता भी कैसे, सरकार ने बड़ी चतुराई से यह फैसला राज्य की बंजर जमीनों को आबाद करने , खेती किसानी बढ़ाने, राज्य में किसानों की आय बढ़ाने और पलायन रोकने के नाम पर किया। उस वक्त यह अंदाजा नहीं था कि उत्तराखंड में इस फैसले के पीछे अडानी या किसी बड़े कॉरपोरेट की कोई भूमिका हो सकती है ।
खैर, आज जब दिल्ली बार्डर पर बैठा किसान नए कृषि कानूनों के खतरे गिना रहा है, गुपचुप तरीके से कानून बनाए जाने पर केंद्र सरकार की मंशा पर सवाल उठे हैं तो उत्तराखंड को इससे अलग नहीं रखा जा सकता । खासकर तब जबकि सरकार इस कदर संवेदनहीन हो चुकी हो कि सड़क जैसे मुददे के लिए दो महीने से सर्द रातों में आंदोलन कर रहे ग्रामीण उसे नजर नहीं आ रहे हों । आज क्यों नहीं यह सवाल उठना चाहिए कि त्रिवेंद्र सरकार ने किस मांग के आधार पर या किस विमर्श के आधार पर भू-कानून में खेती की जमीन को लीज पर देने और कांट्रेक्ट फार्मिंग के लिए संशोधन किया ।
आज जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो साफ नजर आता है कि कैसे उत्तराखंड खेती की जमीन को लीज पर देने वाला देश का पहला राज्य बना । दरअसल इसकी पटकथा भी चर्चित उद्योगपति अडानी के उत्तराखंड दौरे और मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र से मुलाकात के बाद लिखी गयी ।
साल 2017 में उत्तराखंड में प्रचंड बहुमत हासिल कर भाजपा सरकार में आई और त्रिवेंद्र रावत सरकार के ताकतवर मुखिया बने । तकरीबन साल भर बाद त्रिवेंद्र सरकार ने राज्य में औद्योगिक निवेश बढ़ाने के नाम पर इन्वेस्टर्स मीट आयोजित करने का फैसला लिया और साल 2018 में यह मीट आयोजित भी की गई।
याद कीजिए इस मीट से ठीक पहले सितंबर 2018 में अडानी ग्रुप के चेयरमेन गौतम अडानी और मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की देहरादून में मुलाकात होती है । अडानी के लिए सरकार रेड कार्पेट बिछाती है । इस मुलाकात का ही नतीजा निकलता है कि अक्टूबर 2018 में हुई इन्वेस्टर्स मीट के दौरान अडानी और उत्तराखंड सरकार के विभिन्न महकमों के बीच तकरीबन सात हजार करोड़ निवेश के एमओयू साइन होते हैं ।
इन्वेस्टर्स मीट के तकरीबन एक साल बाद सरकार राज्य की अवधारणा के विपरीत भू-कानून में संशोधन करती है । इसी क्रम में खेती को लीज पर दिये जाने और सीलिंग खत्म किए जाने संबंधी फैसले लिए जाते हैं। सरकार के इन फैसलों के निहितार्थ उस वक्त भले ही समझ नहीं आए हों मगर अब तस्वीर साफ नजर आती है । सवाल अडानी के निवेश प्रस्तावों या अडानी जैसे कार्पोरेटों के लिए रेड कार्पेट बिछाने का नहीं, बल्कि सवाल है सरकार की मंशा और पारदर्शिता का।
लोकतंत्र की बात करें तो उसके मायने यही हैं कि अगर सरकार ताकतवर हो, सदन में बहुमत का आंकड़ा मजबूत हो तो फैसले मजबूती से जनता के हक में लिए भी जाएं और लिखे जाएं । मगर जो हालात हैं वह बिल्कुल उलट हैं । ताकतवर सरकार से आम आदमी आज हलकान है क्योंकि जनता की सरकारें फैसले जनता के हक में नहीं बल्कि कॉरपोरेट के हक में ले रही हैं ।
हक से जुड़ी हर आवाज को या तो सरकार के मुखिया के खिलाफ साजिश बता दिया रहा है या सियासत करार दिया जा रहा है । यह सही है कि सरकार के खिलाफ साजिशें भी होती है और सियासत भी, मगर दिल्ली मे सिंधु बार्डर से लेकर उत्तराखंड के सीमांत चमोली में बुलंद होती हक की आवाज न साजिश की बू है और न सियासत । ये आंदोलन तो ताकतवर सरकारों की हकीकत को बेपर्दा कर रहे हैं ।
सनद रहे कि कृषि कानूनों को लेकर किसान आंदोलन से जहां एक ओर लोकप्रिय मोदी सरकार पर सवाल हैं तो वहीं उत्तराखंड में प्रचंड बहुमत वाली त्रिवेंद्र सरकार भी राजकाज को लेकर कटघरे में है । चार साल का कार्यकाल पूरा करने जा रही त्रिवेंद्र सरकार पर इमेज का संकट खड़ा है । समाचार माध्यमों में विज्ञापनों और एडवरटोरियल के जरिए सरकार के सलाहकारों की टीम मुख्यमंत्री की इमेज बनाने की कोशिश में जरुर जुटी है, मगर तमाम सवाल ऐसे हैं जिनका त्रिवेंद्र सरकार के पास कोई जवाब नहीं है ।