योगेश भट्ट देहरादून/
उत्तराखंड की सियासत को ‘विकल्प’ की तलाश है । सियासी तौर पर कोई कहीं भी जुड़ा हो, मगर यह सच है कि आम आदमी में एक छटपटाहट है। हर दूसरा व्यक्ति एक सशक्त विकल्प चाहता है। उक्रांद की नाकामी और कभी उक्रांद से काफी बेहतर स्थिति में रही बसपा के हाशिए पर पहुंचने के बावजूद विकल्प की संभावनाएं अभी भी हैं ।
इसी संभावना को भांपते हुए अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने संभवतः उत्तराखंड में ‘दस्तक’ दी है। मगर आप आम आदमी की उम्मीदों पर खरा उतर पा रही है इसमें संदेह है । आज उत्तराखंड की सियासत से जुड़े तमाम सवालों के साथ एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या आप उत्तराखंड की सियासत मैं आप तीसरा विकल्प बन पाएगी ?
आप उत्तराखंड में आम आदमी की छटपटाहट को भांपते हुए सरकार बनाने का दावा तो कर रही है, सरकार बना सपने दिखा रही है, मुफ्त का लॉलीपॉप भी पकड़ा रही है, मगर सियासत का अंकगणित फिलवक्त इसके पक्ष में बनता नजर नहीं आ रहा है।
उत्तराखंड की सियासत का अंकगणित यह है कि कम से कम तीस फीसदी वोट हासिल किए बिना सत्ता की चाबी हासिल नहीं की जा सकती। राज्य मैं तीस फ़ीसदी वोट हासिल करना भाजपा और कांग्रेस के अलावा किसी अन्य पार्टी के लिए आसान नहीं है ।
फिलहाल भाजपा के पास तकरीबन पैंतालीस फ़ीसदी वोट है तो कांग्रेस के पास भी तीस फीसदी वोट बना हुआ है । इस लिहाज से आप का सामीकरण सरकार तो दूर विपक्ष की लिए भी आसान नहीं है । उत्तराखंड की सियासत को भले ही विकल्प की दरकार है लेकिन यह सवाल तो बनता है कि आखिर ‘आप’ क्यों ?
आप : सत्ता का ख्वाब दिखाने वाला सॉफ्टवेयर
आमआदमी पार्टी दस्तक तो काफी पहले दे चुकी थी, लेकिन आसन्न विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी ने उत्तराखंड में‘री-लांच’ किया है। ‘रेडी टू ईट’ के इंस्टेंट फार्मूले पर काम करने वाली आम आदमी पार्टी को सक्रिय हुए लगभग एक साल हो गया है।बीते साल भर में प्रचार तंत्र के जरिए पार्टी चर्चा में तो आई है लेकिन आम आदमी तक पहुंच नहीं।
कारपोरेट की तर्ज पर काम करने वाली इस पार्टी में संगठन तो सिर्फ नाम भर का है। पार्टी के लिए सियासत एक इवेंट, चुनाव एक मैनेजमेंट और उम्मीदवार सिर्फ एक प्रोडेक्ट भर है। सीधे-सीधे ‘गिव एंड टेक’, मसलन उत्तराखंडमें तुम हमें सत्ता दो हम तीन सौ यूनिट फ्री बिजली देंगे।
सियासत में यह नई परंपरा है, जिसमें न कोई विचार है न आदर्श और न ही सिद्धांत। शुरूआती दौर में लगा कि आम आदमी पार्टी राजनैतिक शून्यता को खत्म करते हुए एक नया विकल्प बन सकती है, मगर पूरी तरह से प्रचार तंत्र पर निर्भरपार्टी जमीनी हकीकत से कोसों दूर नजर आती है। दिल्ली में आप का फार्मूला जरूर कामकर गया लेकिन दिल्ली और उत्तराखंड में बड़ा फर्क है।
पार्टी यह भूल रही है कि उत्तराखंड दिल्ली नहीं है बल्कि विविधताओं वाला प्रदेश है। यहां संगठन, सिद्धांत, संघर्ष, आदर्श, विचार और व्यक्ति के अपने मायने हैं। हकीकत यह है कि इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों के भरोसे मैदान में उतरी पार्टी राज्य की विविधता,परंपरा, इतिहास, सामाजिक, राजनैतिक मुददों और संस्कृति तक से वाकिफ नहीं है।
दिल्ली में हो सकता है यह आम आदमी की पार्टी हो मगर उत्तराखंड में तो यह सियासी महत्वाकांक्षाएं रखने वाले साधन संपन्न लोगों के लिएसियासी प्लेटफार्म बन कर रह गया है। साधन, संसाधन विहीन लोगों के आप में कोई मायनेनहीं। मायने होंगे भी कैसे ? मायने तो संगठन में होते हैं, विचार में होते हैं। जहां विचार और संगठन दोनों ही सिर्फ ‘सत्ता’ हो वहां तो यह उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए।
बहरहाल उत्तराखंड में यह आम आदमी की पार्टी नहीं बल्कि उन साधन संसाधन संपन्न लोगों कामंच बना है, जिनकी सियासी महत्वकांक्षाएं भाजपा और कांग्रेस में पूरी नहीं हो रही हैं।सही मायने में कहा जाए तो आम आदमी पार्टी सत्ता का ख्वाब दिखाने वाला एक ‘सॉफ्टवेयर’ है और सच्चाई यह है कि सॉफ्टवेयर का प्रचार कितना ही होबिना मजबूत ‘हार्डवेयर’ के वह काम नहीं करता। पार्टी से जुड़े चेहरों में अभी तक सिर्फ सेवानिवृत्त कर्नल अजय कोठियाल एकमात्र वह बड़ा नाम है, जिसे हार्डवेयर माना जा रहा है।
यह ‘हार्डवेयर’ आम आदमी पार्टी के सॉफ्टवेयर के साथ कितने लंबे समय तक कदमताल कर पाएगा यह कहना मुश्किल है। ऐसे में राज्य की सभी 70 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा करने वाली यह पार्टी नतीजों में कितना बेहतर करेगी, कहा नहीं जा सकता।
हां,इतना जरूर है कि पहले आकलन था कि ‘आप’ उत्तराखंड में कांग्रेस के समीकरण बिगाड़ेगी । कर्नल कोठियाल के आने के बाद आंकलन यह है कि कुछ सीटों पर आप अब आंशिक रूप से भाजपा को भी प्रभावित कर सकती है।
भूली बिसरी बसपाः
जब हम उत्तराखंड में तीसरी ताकत की बात करते हैं तो आज बसपा को नजरअंदाज कर दिया जाता है। जबकि हकीकत यह है कि भाजपा, कांग्रेस के बाद उत्तराखंड में तीसरा सबसे बड़ा वोट बैंक बसपा का है। विधानसभा में सीटों के लिहाज से बसपा आज हाशिए पर है , फिर भी यह नहीं नकारा जा सकता कि एक समय भाजपा बड़ी सियासी ताकत रह चुकी है।
आज भी उत्तराखंड में बसपा के पास तकरीबन सात फ़ीसदी वोट है। आज भी हरिद्वार और उधमसिंहनगर जिलों में तकरीबन बीस फीसदी वोट बैंक बहुजन समाज पार्टी का है। एक समय ऐसा भी था जब 70 सीटों वाली विधानसभा में सात विधायक बसपा के थे। 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में हरिद्वार जिले की नौ में पांच और उधमसिंहनगर जिले की सात में से दो सीटें बसपा के पास थीं।
इन सात सीटों में से छहसीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थीं। साल 2007 में हुए दूसरे विधानसभा चुनाव में बसपा की ताकत और बढ़ी। इसचुनाव में बसपा के खाते में आठ सीटें आई।
बसपा को नुकसान 2008 में हुए परिसीमन से हुआ।परिसीमन में हरिद्वार और उधमसिंह नगर जिलों में दो दो सीटें बढ़ने के बावजूद साल 2012 में हुए तीसरे विधानसभा चुनाव में बसपा कमजोर पड़ गई।
पार्टी को उधमसिंह नगर की नौ सीटों में से एक भी सीट नहीं मिली जबकि हरिद्वार में 11 में से सिर्फतीन सीटों पर ही बसपा जीत दर्ज कर पाई। राजनैतिक विश्लेषकों की मानें तो बसपा की मजबूती का नुकसान हरिद्वार और उधमसिंनगर में कांग्रेस को रहा है।
एक निश्चित वोट बैंक होने के बाद भी बसपा की स्थिति राज्य में दिनों दिन बिगड़ती जा रही है। राज्य में संगठन की हालत यह है कि बीस साल में अब तक 17 बार प्रदेश अध्यक्ष और 13 बार प्रदेश प्रभारी बदल चुके हैं।
कभी किंग मेकर की भूमिका में रहने वाली बसपा के पास विधायक तो दूर, जिला पंचायत तक में प्रतिनिधित्व नहीं है। समीकरण अब बदल चुके हैं, बसपा को पुनर्जीवन के लिए करिश्माई नेतृत्व की दरकार है जो फिलहाल उसके पास नहीं है ।
कुल मिलाकर उत्तराखंड की सियासत मैं भी विकल्प की दरकार बरकरार है