पुष्य मित्र
आज सुबह सवेरे नमक सत्याग्रह की याद आ गई। वजह जाहिर है। खबर आई है कि सरकार अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए आटा और चावल पर भी टैक्स लगाने जा रही है। जबकि एक जमाना वह भी था जब नमक पर लगे टैक्स को हटवाने के लिए गांधी जी की अगुवाई में साबरमती से दांडी तक की प्रसिद्ध यात्रा हुई थी। और उसके बाद पूरे देश में जगह जगह नमक सत्याग्रह हुआ। छोटे छोटे इलाकों में लोगों खुद नमक बनाकर इस कानून को तोड़ा और आखिरकार सरकार को नमक के ऊपर लगे टैक्स को हटाना पड़ा।
आजादी का अमृत वर्ष चल रहा है। सरकार खुद इस अमृत वर्ष का धूमधाम से आयोजन कर रही है। मगर क्या खुद सरकार को इस महान सत्याग्रह की कथा, वजह और महत्व की बात याद नहीं? और क्या खुद देश की जनता उस कथा को भूल गई है? अगर हां, तो हमें फिर से उस महान कथा को जान लेना चाहिए।
1930 का साल था। कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज का लक्ष्य तय किया हुआ था। देश व्यापी नागरिक असहयोग आंदोलन की शुरुआत होने वाली थी। लक्ष्य था किसी जनविरोधी सरकारी कानून का उल्लंघन करना और सरकार को उसे बदलने पर मजबूर करना। ज्यादातर लोगों की राय थी कि लोगों को जमीन का लगान न देने के लिए प्रेरित किया जाए। मगर गांधी ने नमक को चुना।
क्यों? क्योंकि गांधी जानते थे देश में बड़ी आबादी भूमिहीन है। अगर भू राजस्व विरोधी आंदोलन होता तो वे लोग उससे नहीं जुड़ पाते। जबकि नमक ऐसी चीज थी जिससे गरीब से गरीब लोगों का वास्ता पड़ता था। इसलिए यह आंदोलन जन-जन तक पहुंचने वाला था। यह बात सच भी साबित हुई।
नमक कानून बहुत काला कानून था। अंग्रेजों ने यह तय कर रखा था कि इस देश में उनकी इजाजत के बिना कोई नमक नहीं बना सकता। नमक बनाने पर टैक्स लगता था और ब्रिटिश सरकार की कुल आमदनी का 8 फीसदी से अधिक हिस्सा इसी टैक्स से आता था।
मगर पहले पहल लोगों को यह विचार बहुत बचकाना लगा। खुद अंग्रेज सरकार भी निश्चिंत थी। कहा गया, नमक बनाने का आंदोलन? कुछ नहीं होगा निश्चिंत होकर सोओ।
मगर गांधी ने इस छोटी सी चीज को ऐसा स्वरूप दिया कि पूरे एक साल तक देश के कोने कोने में लोग नमक बनाकर कानून तोड़ते नजर आए। बिहार के बेगूसराय के गढ़पुरा में भी नोनिया मिट्टी से नमक बनाया गया। मधुबनी में रामनंदन जी की अगुवाई में नमक सत्याग्रह हुआ। जगह जगह लोग गिरफ्तार हुए। कुल गिरफ्तारी 80 हजार से अधिक आंकी गई।
दांडी यात्रा के दौरान जब पुलिस ने सत्याग्रहियों पर हमला किया तो वह कथा अहिंसक आंदोलन के इतिहास में दर्ज हो गई। पुलिस लाठी चलाती। अहिंसक भीड़ हाथ बांधे आगे बढ़ती। लोग चोट खाकर चुपचाप गिरते जाते और पीछे वाला उसकी जगह ले लेता। यह घटना दुनिया भर में अहिंसक आंदोलन के उत्कर्ष के रूप में कही और सुनी गई। मार्टिन लूथर किंग खास तौर पर इस घटना से बहुत प्रेरित हुए।
गांधी कहते थे जैसे सेना में सिपाही होते हैं। सशस्त्र विद्रोह में लड़ाके होते हैं वैसे ही अहिंसक आंदोलन में भी सिपाही होने चाहिए। वह सिपाही जो हिंसा का पूरे साहस के साथ सामना कर सके और बिना एक हाथ उठाए खुद को हिंसा के सामने झोंक सके। उनका भरोसा था कि ऐसे अहिंसक सिपाही हिंसा करने वालों का मन बदल सकते हैं। उनको मानवीय बना सकते हैं। दांडी यात्रा उन्हीं अहिंसक सिपाहियों की अद्भुत गाथा थी।
खैर। अभी सवाल गाथाओं का नहीं। सवाल है कि एक दौर वह था जब नमक पर से टैक्स हटाने के लिए इतना बड़ा आंदोलन हुआ और आज हमारी ही सरकार आटा दाल पर टैक्स लगा रही है। नेता निश्चिंत हैं और जनता धार्मिक जुमलों के नशे में। क्या आजादी के अमृत वर्ष में जनता फिर से सो गई है? क्या लोग यह नहीं सोच रहे कि लगातार बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई के बीच यह नया टैक्स बहुत अमानवीय है। खास तौर पर तब जब हम एक संभावित अकाल के मुहाने पर खड़े हैं। बारिश का नामोनिशान नहीं है? क्या आजाद भारत की सरकार को इतना अमानवीय होना चाहिए था? ये बड़े सवाल हैं जो इस देश की जनता और विपक्षी राजनेताओं के सामने खड़े हैं और नमक सत्याग्रह की कहानी भी उनके सामने यही सवाल उठा रही है।