असगर मेंहदी
आज के दिन 1514 ई० को सशस्त्र किसान आंदोलन के नेता घेओरघे दोजा (György Dózsa) को यातनाओं के बाद उसके साथियों के साथ मृत्युदंड दिया गया था। दोजा को एक अपराधी और ईसाई शहीद, दोनों ही तौर पर याद किया जाता है।
यह वह समय था, जब तुर्की ख़िलाफ़त के प्रसार के विरुद्ध, यूरोप में चिंता व्याप्त थी। दोजा एक योद्धा था, जिन्हें इतिहास में Men at Arms कहा जाता है। 1514 में हंगरी के चैन्सलर बकोक़ज़ टोमस (Bakócz Tamás) “होली सी” से पोप लीओ दशम की धर्माज्ञा लेकर लौटा जिसके अनुसार तुर्की के ख़िलाफ़ क्रूसेड को वाजिब क़रार दिया गया था।
दोजा को इस अभियान की ज़िम्मेदारी सौंपी गई तो उसने बहुत ही कम अवधि में 40,000 स्वयंसेवकों (Hajdúk) की सेना खड़ी कर दी। इस सेना में किसान, छात्र, फ़्राइअर, नीचे तबक़े के पादरी के लोग शामिल थे। दोजा ने इनके क्षेत्रों (counties) में बाक़ायदा प्रशिक्षण का इंतज़ाम कराया लेकिन इनके नेतृत्व का इंतज़ाम नहीं हो सका। क्योंकि नेतृत्व की ज़िम्मेदारी शाही परिवारों के अधिकार में थी।
अभी खाद्य वा अन्य प्रकार की आपूर्ति की समस्या पैदा हुई थी कि ज़मींदारों की तरफ़ से फ़सल कटाई के लिये किसानों को खेतों पर जाने का हुक्म आ गया और क़स्बों में किसान परिवारों को प्रताड़ित किया जाने लगा। ज़मींदारों के दबाव में बकोक़ज़ टोमस ने क्रूसेड का कार्यक्रम भी निरस्त कर दिया। “क्रूसेडर्स” ने ज़मींदारों और जागीरदारों के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया। धीरे-धीरे क्रांति की चिंगारी से पूरा हंगरी जल उठा। अनेक क्षेत्रों में महल और क़िलों में आग लगा दी गयी। लेकिन एक बात का ख़्याल रखा गया कि केवल अतातायी ज़मींदारों और रजवाड़ों से बदला लिया जाये।
पोप ने अपनी धर्माज्ञा को वापस ले लिया और रोमन साम्राज्य सहित दूर दराज़ से भाड़े के सैनिक बुलाये गए और ताकि क्रांति की इस आग को बुझाया जा सके।
अंत में दोजा को पकड़ लिया गया। उसे जलते हुए लोहे के तख़्त पर बिठा कर जलते लोहे का ताज पहनाया गया। उसके इस तख़्त को नौ भूके साथियों को उठाने पर मजबूर किया। उसके भाई के उसके सामने तीन टुकड़े कर दिये गए और सत्तर हज़ार से ज़्यादा किसानों को यातना देकर मारा गया।
इस विद्रोह के बाद nobility सामंतों के अधिकार बेतहाशा बढ़ा दिये गए और आख़िर कार 1848 में सतत संघर्ष के बाद ही हंगरी से ‘Serfdom’ को ख़त्म किया जा सका।
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