रजपाल बिष्ट गोपेश्वर।
चमोली जिले में पुत्रदायिनी के रू प में विख्यात माता अनुसूया देवी ने न जाने अब तक कितनी सूनी गोदें भर कर रख दी हैं। यही वजह है कि मां के जप – तप के फलस्वरू प ही आज भी हजारों लोगों की गृहस्थी रची – बसी हुई हैं। इस साल 17 व 18 दिसम्बर को मेला लगेगा। इसके लिए भक्त अनुसूया आश्रम पहुंचने लगे हैं।
मान्यता है कि मंदिर के गर्भ गृह व अहाते में रात्रिभर जागकर ध्यान, जप – तप करने से भक्तों के भाग्य जाग उठते हैं और उनकी कोख हरी हो जाती हैं। इस रात्रि जागरण के बीच नींद के किसी अलसाये झोंके में कोई स्वप्न दिख गया तो मान लिया जाता है कि क रूण – मूर्ति देवी ने उनकी प्रार्थना सुन ली है। अखंड विश्वास और अटूट श्रद्धा के आगे सारे तर्क धरे के धरे रह जाते हैं। सदियों से रात्रि जागरण की यह परंपरा बदस्तूर जारी है। ऐसा यह अवसर निसंतान दंपतियों को दत्तात्रेय जयंती की चतुर्थदशी व पंचमी को मिलता है। दिसंबर माह में ही ये दिन पड़ते हैं। पुराणों माता अनुसूया को सर्वश्रेष्ठ पुत्रदायिनी देवी बताया गया है। इसके पीछे भी एक कथा सर्वविदित है। बताया जाता है कि महर्षि अत्रि लंबी तपस्या पर बैठे थे। कठोर तप देकर सभी देव घबरा गए। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश उनके पास गए। बोले – हम बेहद पसन्न हैं। कहिए आपको क्या चाहिए। महर्षि बोले – तपस्या मेरा स्वभाव है। मुझे कुछ नहीं चाहिए। हां, सती अनुसूया देवी से पूछ लो। तीनों देव मां अनुसूया के पास पहुंचे तो माता ने भी कुछ भी चीज मांगने से मना कर दिया। तीनों देवों को यह सब बहुत बुरा लगा। तीनों देवों ने सोचा की सबसे बड़ी इच्छा संतान प्राप्ति की होती है। क्यो न इस बारे में पूछ लिया जाए। उन्होने देवी से कहा— संतान की इच्छा तो होगी ही। देवी ने कहा – आप तीनों भी तो मेरे बच्चे हैं। देवों ने सोचा यह उनका कैसा उपहास है। इसे अहं हो गया है। तीनों देवों ने परीक्षा लेने की ठानी। उन्होने देवी से कहा – तो तुम बच्चों के सामने नग्न रूप में आ जाओ। देवी के तप के बलबूते पर तत्काल तीनों देव शिशु बन गए। देवी ने उन्हे गोद में बैठा लिया। तीनों देवों को सत्य की अनुभूति हुई । उन्होने माता से बरबस क्षमा मांग ली। तदनंतर में ब्रह्मा चं मां के रू प में, शिव दुर्वासा के रूप में तथा विष्णु ने दत्तात्रेय के रूप में जन्म लिया। तब से माता अनुसूया ‘पुत्रदा’ के रू प मेें विख्यात हो गई। इसी के चलते यहां प्रतिवर्ष अनुसूया देवी का दत्तात्रेय जन्म जयंती मेला आयोजित किया जाता है।

बरोहियों का होता है रजिस्टे्रशन
वैसे देवी के दर्शनों के लिए साल भर यहां लोग आते रहते हैं। पुत्र कामना के लिए होने वाला रात्रि जागरण तो इसी खास अवसर पर मेले के रू प में जुटता है। हाड़ कंपा देने वाली ठंड में इस मौके पर दूर- दूर से आने वाले निसंतान दंपतियों के अलावा सैकड़ों नर- नारी इस मेले में जुटते हैं। जंगल व मैदान में यह मेला जुटता है और मंदिर में रात्रि जागरण पर्व मनाया जाता है। संतान की इच्छा वाली महिलाएं सायं से ही ध्यान जप में बैठ जाती है। इन्हें यहां की भाषा में ‘बरोही’ कहा जाता है। मंदिर ट्रस्ट बकायदा इनका रजिस्ट्रेशन कराता है। बरोही उनिंदे ही ध्यान मुद्रा में लंबी रात काट देते हैं।

बेहद प्राचीन है अनुसूया मंदिर
बर्फीली चोटियों, सन्नाटेदार घने – गहरे जंगलों के बीच बसा है माता अनुसूया देवी का मंदिर। इसकी प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। प्रकृति प्रेमियों के लिए तो यह अद्भुत तपोभूमि है।
जिला मुख्यालय गोपेश्वर से 13 किमी दूर मंडल के अनुसूया गेट से 5 किमी की पैदल दूरी पर स्थित है यह मंदिर। समुद्र तल से 8 हजार फीट ऊं चाई पर स्थिति यह मंदिर बेहद पवित्र स्थल के रू प में विद्यमान है। मंदिर के पास स्थानीय पुजारियों की बसागत भी है और खेतीबाडी भी । बाकी जंगल, झरने, घास के बड़े – बड़े मैदान और आकाश की ऊं चाइयों को छूते वर्फ के शिखर भी यहां मौजूद हैं। मंदिर परिसर से सटे जंगलों में नाना प्रकार की रंग – बिरंगी चिडिय़ाएं यहां का सन्नाटा तोड़ती हैं। इस मेले में यही जंगल लोगों के लिए रात्रि गुजारने का अद्भुत साधन भी बनते हैं। जंगलों में लोग रात भर अलाव जला कर ठंड से निजात पाते हैं तो मैदान में लोक गीत व लोक नृत्य के उल्लास में मस्त हो जाते हैं। तिब्बत सीमा से सटी नीती तथा माणा घाटी के जनजाति की महिलाएं इस मेले में आकर नृत्य प्रस्तुत कर खास रंगत बिखेर देती हैं। इनके बाजूबंद, छोड़ा नृत्य व जागर तथा पौणा नृत्य विशेष आकर्षण लिए होते हैं। प्रात: लोग डेढ किमी आने अत्रि कुंड के विशाल झरने को निहारने, पूजा करने तथा स्नान के लिए जाते हैं। हालांकि इस मंदिर की स्थापना का सही – सही अनुमान ज्ञात तो नहीं है किंतु मौजूदा मंदिर ऐतवार गिरि स्वामी ने बनवाया है। बेहद कलात्मक व खूबसूरत इस मंदिर की शिल्प शैली बेहद अनूठी है। प्राचीनकाल का विशाल मंदिर 1803 में आए भूकंप से नष्ट हो गया था। बताया जाता है कि यह मंदिर शंकराचार्य द्वारा निर्मित है। अभी भी पुराने मंदिर के अवशेष का एक बड़ा पत्थर मौजूदा मंदिर के पिछवाड़े में खड़े विशाल देवदार वृक्ष पर अटका हुआ दिखाई देता है। मौजूदा समय में मंदिर की व्यवस्था एक ट्रस्ट के माध्यम से संचालित हो रही है।