DATARAM CHAMOLI :
उत्तराखंड राज्य किसी की दया या कृपा से नहीं मिला, बल्कि यह जनता के लंबे संघर्ष और बलिदान के फलस्वरूप अस्तित्व में आया। इसके लिए मदन मोहन नौटियाल जैसे संघर्षशील और वैचारिक नेताओं ने ठोस धरातल की नींव रखी। नौटियाल जी के संपर्क में मैं छात्र जीवन के दौरान तब आया था जब वे उत्तराखंड क्रांतिदल की मजबूती और राज्य आंदोलन की अलख जगाने के लिए जगह-जगह का दौरा कर रहे थे। अपने मिशन की कामयाबी के लिए जब वे स्वर्गीय विशनपाल सिंह परमार उत्तराखंडी और स्वर्गीय जनार्दन प्रसाद कुकसाल जी के साथ टिहरी पहुँचे थे तो उस समय वरिष्ठ पत्रकार विक्रम सिंह बिष्ट जी जिला महासचिव हुआ करते थे और मैं तब टिहरी कैंपस कॉलेज में बी.एस-सी.का छात्र था। बिष्ट जी ने मुझसे सलाह की कि नौटियाल जी हमारे केंद्रीय महासचिव हैं, परमार जी कार्यालय सचिव और कुकसाल जी जिला अध्यक्ष हैं। हमारे नेता टिहरी आए हैं तो इनकी एक जनसभा तो होनी ही चाहिए, लेकिन शहर में धारा 144 लागू होने के कारण अड़चन थी। लिहाजा बिष्ट जी ने प्रशासन के नाम एक पत्र तैयार किया और मैं जाकर सभा की अनुमति ले आया।
अनुमति देने से पहले एसडीएम साहब ने मुझसे पूछा कि ये नौटियाल जी क्या हैं, क्या करते हैं? कहाँ रहते हैं? कम्युनिष्ट हैं क्या? मैंने बड़ी विनम्रता से इतना ही कहा कि सर यूँ समझिए कि ये उत्तराखंड राज्य आंदोलन के लिए ही समर्पित हैं। खैर, टिहरी में उक्रांद की सभा हुई और बहुत अच्छी रही। टिहरी के बाद जब मैं श्रीनगर में पढ़ने लगा तो उस दौरान उनसे दिन-रात उनसे मुलाकातें होती थी। नौटियाल जी कहते थे कि आंदोलन में सक्रिय रहो, लेकिन रात में पढ़ाई भी बराबर करो। यदि मैं आंदोलन की रणनीति पर कोई सटीक बात कहता था तो भरपूर प्रशंसा करते थे, लेकिन कभी चूक होती तो कह भी देते कि तुम जर्नलिज्म कर रहे हो कि मजाक कर रहे हो। एक अच्छे मार्गदर्शक की भावना उनमें थी।
1994 के आंदोलन के दौरान जब वे दिल्ली में मिले तो उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि मुझे खुशी है कि तुम राष्ट्रीय पत्रकारिता में हो, लेकिन इससे भी बढ़कर खुशी इस बात की है कि तुम्हारा उत्तराखंड से जुड़ाव आज भी पहले जैसा ही है। मैंने कहा यह सब आपका आशीर्वाद है। नौटियाल जी राज्य आंदोलन में हमेशा सक्रिय रहे। इसके लिए उन्हें शारीरिक और आर्थिक तौर पर नुकसान भी झेलना पड़ा। 80 के दशक में उन्होंने जनजागरूकता के लिए ‘उत्तराखंड प्रदेश क्यों?’ पुस्तक निकाली। इस पुस्तक में जिस उत्तराखंड की कल्पना की गई थी, उसकी संभावनाएं आज भी दूर तक कहीं नजर नहीं आती हैं। उस ‘क्यों’ का जवाब देने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति होनी चाहिए जो कि अब तक की सरकारों ने नहीं दिखाई। जब-जब जन आंदोलनों की बात होगी नौटियाल जी याद किये जाएंगे।