चन्द्रशेखर तिवारी/
मानव इस पृथ्वी पर आदिकाल से प्रकृति के साथ रहते हुए आये दिन तमाम तरह की आपदाओं से भी संघर्ष करता रहा है। आपदाएं चाहे प्राकृतिक हों या मानवजनित यह दोनों रुपों में घटित होकर मानव जीवन को प्रभावित करती हैं। आपदा का दुःखद परिणाम अन्ततः जन-धन व सम्पदा के नुकसान रुप में हमारे सामने आता है। सामान्य बोलचाल की भाषा में किसी प्राकृतिक रुप से घटित घटना के फलस्वरुप जब मानव का जीवन संकट में पड़ जाता है तो उस स्थिति को प्राकृतिक आपदा माना जाता है। मुख्य रुप से आंधी,तूफान,चक्रवात, बवंडर,बाढ़,कारण,बादलफटना, बज्रपात ,अवर्षण(सूखा), भूकम्प,भूस्खलन तथा हिमस्खलन आदि को प्राकृतिक आपदाओं के अर्न्तगत शामिल किया जा सकता है।
बरसात के मौसम में उत्तराखण्ड हिमालय में भूस्खलन और बाढ़ की सर्वाधिक घटनाएं सामने आती हैं। यहां की ऊपरी पर्वत श्रृंखलाएं जहां तीव्र ढाल व बर्फ से ढकी हैं वहीं इसका मध्य भाग अपेक्षाकृत सामान्य ढाल वाला है इसके दक्षिण में विस्तृत मैदानी भू-भाग स्थित है जो पर्वतीय नदियों द्वारा लायी गयी मिट्टी से निर्मित है। अपने विशिष्ट भू-गर्भिक संरचनाओं, पर्यावरणीय व जलवायुगत विविधताओं से युक्त हिमालयी क्षेत्र में अक्सर प्राकृतिक आपदाओं भू-स्खलन, बाढ़, व बादल फटने की घटनाएं अक्सर होती रहती हैं। भू-गर्भिक संरचना की दृष्टि से भी हिमालय का यह इलाका अत्यन्त संवेदनशील माना जाता है। भूगर्भीय हलचलों के कारण यहां छोटे-बडे़ भूकम्पों की आशंका भी लगातार बनी रहती है।
पिछले कई दशकों में अनियोजित विकास के कारण पहाड़ो में भू-कटाव और भूस्खलन की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। अनियोजित विकास, प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन,व बढ़ते शहरीकरण की स्थिति ने यहां के पर्यावरणीय सन्तुलन को बिगाड़ दिया है। इसके चलते प्राकृतिक आपदाओं में वृद्वि हो रही है। जनसंख्या का अधिक दबाव, जन-जागरुकता की कमी ,पूर्वसूचनाओं व संचार साधनों की समुचित व्यवस्था न होने जैसे कारणों से प्राकृतिक आपदाओं से जन-धन की हानि में व्यापक स्तर पर वृद्वि हो रही है।उत्तराखण्ड में वर्ष 1998 के मालपा भू-स्खलन में 250 से अधिक तीर्थयात्रियों की असमय मौत तथा जून 2013 में आयी केदारनाथ आपदा में हजारों लोगों की मौत के पीछे भी यह मुख्य कारण माने गये थे।
आंकडों के हिसाब से यदि हम पिछले दस सालों में आयी प्राकृतिक आपदा पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि प्राकृतिक आपदाओं से उत्तराखण्ड के जन-जीवन पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा है। मध्य जून से लेकर सितम्बर माह तक (मानसून के दौरान) की मध्यम अथवा मूसलाधार बारिश यहां के लोगों के लिये मुसीबत बनकर आती है। मानसून के दौरान भूस्खलन व बाढ़ से पर्वतीय राज्य के लोगों का जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है। जिसमें अक्सर लोगों व मवेशियों की जानें चली जाती हैं और घर-मकान के साथ ही खेती की जमीन व सार्वजनिक सम्पतियों यथा सड़क,गूल,नहर,पुल, घराट व स्कूल भवनों की क्षति देखने को मिलती है। इस कारण लोगों को भारी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है।
आम तौर पर धरती की सतह पर स्थित मृदा,पत्थर और चट्टान के गुरुत्वाकर्षण के अधीन ढाल पर खिसकने की प्रक्रिया को भू-स्खलन कहा जाता है। चट्टानों के टूटने से बने छोटे-बड़े भूखण्ड और मलबे मे जब बरसात के दौरान पानी भर जाता है तो सतह पर मलबे का भार अत्यधिक बढ़ जाता है जो अस्थिर होकर नीचे की ओर खिसकने लगता है। भू-स्खलन एक जटिल प्रक्रिया है जिसके पीछे कई कारण होते हैं। वस्तुतः- भू-आकृति, भूगर्भिक भ्रंश व दरार, अत्यधिक वर्षा अथवा बादल फटना, भूकम्प, जलस्तर में परिवर्तन, तीव्र हिम गलन जैसे प्राकृतिक कारण तथा मानव जनित कारणों में नदी-नालों के प्राकृतिक प्रवाह पथ में हस्तक्षेप करने और सड़क-कटान, सुरंग निर्माण, बांध निर्माण, पेड़ो का कटान व अनियोजित तरीकेसे भू-उपयोग में बदलाव करने जैसे प्रमुख कारण माने जाते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में प्रतिवर्ष बरसात के दौरान भू-स्खलन से भारी क्षति होती है। जनधन व पशुधन के घायल होने के साथ ही उनकी मृत्यु तक हो जाती है। मौजूद ढांचागत सुविधाओं यथा- सड़क,पुल, बिजली, टेलीफोन, नहर,पेयजल व अन्य बुनियादी सुविधाएं बुरी तरह प्रभावित हो जाती हैं। भू-स्खलनों से खेती-बागवानी की भूमि, वन सम्पदा व जलस्रोतों को भी नुकसान पहुंचता है।कई बार तो सार्वजनिक भवन यथा सरकारी कार्यालयों, अस्पताल, स्कूल आदि भी अपने भू-स्खलन की चपेट में आ जाते हैं।
नदी,नालों व गधेरों के जल प्रवाह में अचानक होने वाली वृद्धि से भी पहाड़ का जनजीवन प्रभावित होता है। किसी भी जल धाराओं में जब उसकी सीमा से बाहर पानी प्रवाहित होने लगता है तो इस विकराल स्थिति को सामान्यतःबाढ़ कहा जाता है। नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में भारी या दीर्घ समय तक होने वाली वर्षा का अतिरिक्त पानी इन नदियों में प्रवाहित होने लगता है और बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। कभी-कभी भारी भू-स्खलन के मलबे से नदियों का प्रवाह बाधित हो जाता है और वहां पर अस्थायी झील बन जाती है और झील के अचानक टूट जाने से नदी में बाढ़ आ जाती है। अधिकांशतः इस तरह की स्थिति उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकों में पैदा होती हैं। 1894 को विरही नदी तथा 1978 में भागीरथी घाटी तथा इसी वर्ष फरवरी में रैणी-तपोवन में धौलीगंगा नदी में इसी कारण बाढ़ आयी। इस बाढ़ से अलकनंदा व भागीरथी के किनारे बसे तमाम गांव व पड़ाव तबाह हुए। उत्तराखण्ड के हरिद्वार व ऊधमसिंह नगर जैसे मैदानी जनपदों में गंगा, गौला, कोसी व ढैला नदियों के किनारे बसे अनेक गांवो में मानसून के दौरान बाढ़ की लगातार आशंका बनी रहती है जिससे यहां खेती की जमीन को नुकसान पहुंचता है।