शकील अख्तर
2024 के लोकसभा चुनाव में जाने से पहले प्रधानमंत्री मोदी का सबसे बड़ा टारगेट जम्मू कश्मीर है। वहां पहली बार भाजपा सरकार बनाना। भाजपा की पूरी राजनीति देश भर में आजादी के बाद से कश्मीर पर केन्द्रित रही। चाहे लोकसभा के चुनाव हों या दक्षिण के किसी प्रदेश के या नगर पालिकाओं के ही, कोई चुनाव कश्मीर का नाम लिए बिना पूरे नहीं होते। मगर उसी कश्मीर में वह कभी सरकार नहीं बना पाई। अभी दो साल पहले महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार में जरूर शामिल रही मगर अकेले सरकार का कोई संजोग नहीं बना।
इस बार वही बन रहा है। या यह कहना ज्यादा सही होगा कि प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह बना रहे हैं। भाजपा और केन्द्र एवं राज्य सरकार की जैसी तैयारियां चल रही हैं उसे देखते हुए लगता है कि इस साल के अंत में नवंबर दिसंबर में वहां चुनाव करवा लिए जाएंगे। विधानसभा क्षेत्रों का पूनर्गठन हो चुका है। जम्मू जहां भाजपा सबसे अच्छा प्रदर्शन करने की सोच रही है वहां 6 सीटें बढ़ा दी गई हैं। पहले यहां 37 सीटें थीं, जो अब बढ़कर 43 हो गई हैं। कश्मीर में जहां 46 थीं, वहां नए परिसीमन में केवल एक सीट बढ़ाई गई है। अब वहां 47 सीटें हैं। मतलब 90 सदस्यीय विधानसभा में करीब करीब बराबर। जम्मू 43 और कश्मीर 47।
चुनाव से पहले का यह एक बड़ा काम था भाजपा के लिए और वह हो गया। दूसरा एक वादा था कि चुनाव से पहले जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा वापस दे दिया जाएगा। मगर अब इसकी उम्मीद कम लग रही है। केन्द्र सरकार केन्द्र शासित राज्य के तौर पर ही वहां चुनाव करवाएगी। ऐसा उसका विभिन्न राजनीतिक दलों और नेताओं से हो रही बातचीत से अंदाजा लग रहा है। कश्मीर में ज्यादातर राजनीति ट्रेक टू में की जाती है। विभिन्न मध्यस्थों के जरिए ज्यादा बातचीत होती है।
एक बार वाजपेयी जी ने कहा था कौन कर आया बात? हमको तो खबर ही नहीं! यह 2001- 02 की बात है। वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे। उनकी सरकार में उमर अब्दुल्ला शामिल थे। उस समय जम्मू कश्मीर में सरकार किस की बनेगी यह दिल्ली से ही तय होता था। कश्मीर में आतंकवाद का एक प्रमुख कारण यह भी था कि वहां लोकतंत्र को काम करने ही नहीं दिया गया। 1987 में जो विधानसभा चुनाव हुए थे। वे अपनी भारी धांधली के कारण आज तक कश्मीरियों के दिलो दिमाग में छाए हुए हैं। राजीव गांधी फारुख अब्दुल्ला समझौता हुआ था। जिसके तहत दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा था।
इनके खिलाफ कश्मीर के बाकी दलों ने मफ ( मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट) बनाकर चुनाव लड़ा था। मगर कश्मीरियों का आरोप है कि बेइमानी करके उसके उम्मीदवारों को हराया गया। हिजबुल मुजाहिदीन के सैयद सलाह उद्दीन, जेकेएलएफ के यासीन मलिक सब उन चुनावों में सक्रिय थे। मगर ऩेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस की इकतरफा जीत के बाद वहां असंतोष भड़क गया। उसके बाद ही फारूख अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और फिर 1989 में वहां गवर्नर रुल लगाना पड़ा। जो 1996 तक चला।
तो खैर 1996 के चुनाव के बाद जिसमें पहले से तय था कि फारुख मुख्यमंत्री बनेंगे, वे इंग्लेंड से कश्मीर वापस आए ही इसी शर्त पर थे 2002 के चुनाव आ गए। उसी समय वाजपेयी जी से जब फारुख को एक टर्म और दिए जाने की बात कही गई तो उन्होंने आश्चर्य और क्षोभ से कहा कि ऐसा क्यों? हालांकि फारुख की नेशनल कान्फ्रेंस केन्द्र में वाजपेयी को समर्थन दे रही थी। उनके बेटे उमर अब्दुल्ला वाजपेयी के साथ विदेश राज्य मंत्री थे। मगर दूसरी तरफ यह भी सच था कि फारुख सरकार बुरी तरह भ्रष्टाचार में डूबी हुई थी।
कितनी! इस का एक उदाहरण बताते हैं। पत्रकार की आज तो कोई इज्जत बची नहीं है। मगर उस समय इज्जत थी। उससे कोई पैसे वैसे नहीं मांगता था। मगर वहां हमसे भी पैसे मांग लिए गए। मतलब रिश्वत। वह हमारे लिए पहला मौका था जब किसी सरकारी अफसर ने एक जेनुइन काम के लिए हमसे पैसे मांगे। तो भ्रष्टाचार का हाल यह था। मुख्यमंत्री फारुख से उनके मंत्री और विधायक भी नहीं मिल पाते थे। केवल दो लोग चीफ सैकेट्री अशोक जेटली और मुख्यमंत्री के प्रिंसिपल सैकेट्री वे भी आईएएस थे, उनका कुत्ता भी राज्य सरकार के विमान में घूमता था पूरी सरकार चलाते थे। बड़ा दुखांत हादसा हुआ था वहां। राज्य सरकार का वह विमान दुर्घटना ग्रस्त हो गया था। और उसमें उसका बहुत योग्य पायलट मारा गया था।
बहरहाल 2002 के चुनाव से पहले वाजपेयी ने साफ निर्देश दिए कि चुनाव फ्री एंड फेयर होना चाहिए। और जब भारत का प्रधानमंत्री खुद कुछ कहता है तो उसे होने से कोई नहीं रोक सकता। वही हुआ। नेशनल कान्फ्रेंस हार गई। भाजपा की सहयोगी पार्टी। मगर कश्मीर में एक संदेश गया कि यहां भी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हो सकते हैं। उसके बाद से ही कश्मीर में सामान्यीकरण की प्रक्रिया तेज हुई। मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बने। और वाजपेयी ने उनके साथ मिलकर कश्मीर में “गोली नहीं बोली” और “बंदूक नहीं संदूक (मतपेटी) “ मुहिम को गति दी। मुफ्ती के वह तीन साल 2002 से 2005 तक और वाजपेयी के दो साल 2002 से 2004 तक कश्मीर की स्थिति में सुधार के सर्वश्रेष्ठ साल रहे। 2005 में मुफ्ती ने कांग्रेस से समझौते के तहत कुर्सी छोड़ दी और गुलामनबी आजाद मुख्यमंत्री बने। और इससे पहले 2004 में वाजपेयी की पार्टी चुनाव हार चुकी थी।
आज इतिहास फिर एक नए मोड़ पर है। जैसे उस समय फारुख अब्दुल्ला, मुफ्ती महत्वपूर्ण रोल में थे आज आजाद हैं। कांग्रेस ने अभी तीन दिन पहले ही कश्मीर के नेताओं के साथ कई उच्चस्तरीय मीटिंगें की। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने एक बार फिर कश्मीर में आजाद को पूरी तरह खुली छूट देने की बात कही। आजाद को जिस प्रदेश अध्यक्ष मीर से प्राब्लम थी उनसे इस्तीफा ले लिया गया है। आजाद को अध्यक्ष बनने का फिर आफर है। मगर जैसा कि दो दिन तक दिल्ली में हुई बातचीत से लगता है कि आजाद अध्यक्ष नहीं बनना चाहते। अपने किसी आदमी को बनाकर खुद केंपेंन कमेटी का चेयरमेन या ऐसी ही कोई और उपर की पोजिशन चाह रहे हैं। हालांकि सोनिया को इस बात पर आश्चर्य है कि अध्यक्ष क्यों नहीं बन रहे। मगर आजाद के नजदीकी लोग कहते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष उन्हें अपने कद से कम की चीज लगता है। जबकि कांग्रेस में बड़े बड़े नेता प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं। अभी कमलनाथ मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। कांग्रेस में राष्ट्रीय अध्यक्ष के बाद प्रदेश अध्यक्ष ही सबसे बड़ा पद माना जाता है।
लेकिन आजाद के मन को अभी भी कांग्रेस पूरी तरह समझ नहीं पा रही है। हालांकि उसकी तरफ से पूरी छूट और राज्य के लिए हर आफर है। उनके नजदीकी लोग अब कहने भी लगे हैं कि आजाद ने नई पार्टी बनाने और कहीं और जाने ( भाजपा) का विचार छोड़ भी दिया है। मगर फिर भी आजाद का रोल क्या रहेगा यह कहना अभी मुश्किल है।
कश्मीर है ही ऐसी उलझी हुई चीज। आज सारे पत्ते प्रधानमंत्री मोदी के पास हैं। मगर उन्हें खेलना आसान नहीं। हर चीज का अन्तरराष्ट्रीय असर होता है। वहां सरकार बनाने में सबसे बड़ी बाधा यही है कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर कोई गलत संकेत नहीं जाएं। पाकिस्तान को कोई नया मौका न मिले।
ऐसे में ही मोदी के लिए आजाद और फारुख की उपयोगिता है। पहली यह कि दोनों मिलकर चुनाव नहीं लड़े। कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस के मिल जाने से जम्मू और कश्मीर दोनों जगह भाजपा विरोधी वोट बंटेगा नहीं। और यह स्थिति भाजपा के लिए नुकसानदेह है। जम्मू में ऐसा नहीं है कि सारी वोट भाजपा को चला जाएगा। भाजपा के खिलाफ वहां बहुत नाराजगी है। और उसे कांग्रेस केश नहीं करा पाए यही भाजपा की पूरी कोशिश है। इसलिए भाजपा का आफर था कि आजाद अपनी पार्टी बनाकर लड़ें ताकि जम्मू में कांग्रेस का वोट बंट सके। और कश्मीर से भी अगर वे कोई सीट जीत जाते हैं तो बाद में कम पड़ने की स्थिति में काम में आएगी।
कश्मीर में महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, कर्नाटक जैसा नहीं कर सकते। देश के बाहर कड़ी प्रतिक्रियाएं होंगी। इसलिए कश्मीर अभी जितना पेचिदा मोदी के लिए बना हुआ है उससे थोड़ा कम आजाद के लिए भी। फारूख का रोल भी बहुत इम्पार्टेंट होगा। यही सब कश्मीर की कथा है। जिस पर इन दिनो कई पहलुओं से विचार हो रहा है।