उत्तराखंड के 25 वर्ष: कई वादे अधूरे, कई सवाल अब भी अनुत्तरित

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले… मिर्जा ग़ालिब की ये पंक्तियाँ उत्तराखंड के 25 सालों के सफर पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं। 25 वर्ष पूरे कर चुका यह युवा राज्य भले ही विकास के कई पड़ाव पार कर चुका हो, लेकिन जिन मूल उद्देश्यों—स्थायी राजधानी, स्थानीय रोजगार, पलायन रोकथाम और पर्यावरण संरक्षण के साथ इसका जन्म हुआ था, वे आज भी अधूरे हैं।

भाजपा और कांग्रेस, दोनों ने सत्ता में आने पर समस्याओं के समाधान के वादे किए, पर सच्चाई यह है कि स्थायी राजधानी का सवाल आज भी जस का तस है। गैरसैंण को भले ही ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दिया गया हो, मगर स्थायी राजधानी का निर्णय राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में अधर में लटका है।

रोजगार का हाल भी कुछ बेहतर नहीं है। सरकार दावा करती है कि बीते चार वर्षों में 26,500 सरकारी नौकरियां दी गईं, जबकि बजट दस्तावेजों के अनुसार एक अप्रैल 2024 तक 81,268 पद रिक्त थे। यूकेएसएससी जैसी परीक्षाओं में पेपर लीक घोटालों ने युवाओं के भरोसे को तोड़ दिया है। इनवेस्टमेंट समिट्स में निवेश के बड़े दावे होते हैं, मगर जमीनी हकीकत अब भी कागजों तक सिमटी है।

शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की कमी से पलायन लगातार बढ़ रहा है। 2001 से 2011 के बीच पहाड़ी जिलों की आबादी में भारी गिरावट दर्ज हुई। वहीं, जलवायु परिवर्तन और अंधाधुंध विकास परियोजनाओं ने प्राकृतिक आपदाओं को और भयावह बना दिया है। चारधाम राजमार्ग जैसे प्रोजेक्ट्स ने जहां संपर्कता बढ़ाई, वहीं पर्यावरणीय संतुलन को गहरा नुकसान पहुंचाया।

बुनियादी सुविधाओं की कमी अब भी पहाड़ की सबसे बड़ी समस्या है। अस्पतालों में डॉक्टर नहीं, स्कूलों में शिक्षक नहीं। चौखुटिया जैसे क्षेत्रों के लोगों को इलाज के लिए देहरादून तक पदयात्रा करनी पड़ती है। जंगलों की आग, नदियों का प्रदूषण और मानव-वन्यजीव संघर्ष जैसी समस्याएं राज्य की विकास नीतियों पर सवाल खड़ा करती हैं।

राज्य आंदोलनकारियों का चिह्नीकरण, पुरानी पेंशन, भूमि कानून और सांप्रदायिक सद्भाव जैसे मुद्दे भी आज तक समाधान की प्रतीक्षा में हैं। आंदोलन से जन्मा यह राज्य अब इस मोड़ पर है जहां जनता को अपनी आवाज बुलंद किए बिना सरकार तक अपनी बात पहुंचाना मुश्किल हो गया है।

पच्चीस साल बाद भी उत्तराखंड को उस संवेदनशील, आत्मनिर्भर और समृद्ध राज्य के रूप में देखना अब भी एक सपना ही लगता है“बहुत निकले मेरे अरमां, लेकिन फिर भी कम निकले।”

अरविंद शेखर