History of LokParv Egas: लोकास्था, लोक परम्परा और रोमांच का पर्व “इगास/बूड़ दीवाली/कांन्सी बग्वाल को राज्य के पटल पर अत्यंत विस्तृत श्रद्धा और उल्लास के साथ पुरे सम्मान के साथ मनाये जाने का निर्णय प्रशासनीय कदम है लोकपर्व जनमानस के बेहद करीब होते हैं और कई अर्थो में वैज्ञानिकता और तर्कपूर्ण भावों से लयबद्ध होते हैं । यह आम लोगो की कई तरह की अभिव्यक्ति के सूचक और सशक्त माध्यम हैं । शासन और आम बुद्धिजीवि जनमानस इस ओर ध्यान दे तो इससे विकास के कई सोपान निर्मित हो सकते हैं।

History of LokParv Egas: उत्तराखंड में लोकपर्व इगास को मानने का परंपरा करीब 400 वर्ष पुरानी है। इगास को लेकर पर्वतीय समाज में दो तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं। एक वीर भड़ माधों सिंह भंडारी से तो दूसरी भगवान राम के लंका विजय कर अयोध्या लौटने से जुड़ी हुई हैं। राज्य के कुमाऊं मंडल में इसे बुढ़ी दिवाली के नाम से जाना जाता है।

उत्तराखंड में लोकपर्व इगास बड़ी दीपावली के बाद 11वें दिन एकादशी की तिथि को मनाया जाता है। बीते दो वर्षों से राज्य सरकार इस दिन राजकीय अवकाश घोषित करती आई है। वहीं, बीते वर्षों की अपेक्षा इसबार इगास को लेकर उत्तराखंड से लेकर देश के कई हिस्सों में प्रवासी उत्तराखंड वासियों में खासा उत्साह दिख रहा है।

इगास की ऐतिहासिक मान्यता
उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में इगास मनाने की कहानी वीर भड़ माधों सिंह भंडारी से जुड़ी है। 400 वर्ष पूर्व वीर भड़ माधो सिंह भंडारी टिहरी रियासत के राजा महिपति शाह के सेनापति थे। राजा ने एक बार माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत (भोटांतिक प्रदेश) के राजा से युद्ध करने के लिए दवापाघाट भेजा था। युद्ध लंबा चला तो इसीबीच दिवाली का पर्व भी आ गया। जब त्योहार के दिन तक कोई भी सैनिक वापस नहीं लौटा, तो ग्रामीणों ने उनके लौटने की उम्मीद खो दी और दिवाली ही नहीं मनाई। लेकिन माधो सिंह भंडारी सेना के साथ दीपवाली के 11वें दिन दवापाघाट का युद्ध जीत कर वापस लौट आए। उनके जीतकर लौटने के बाद ग्रामीणों ने दीपावली का उत्सव मनाया। उस दिन एकादशी तिथि होने पर इसे इगास का नाम दिया गया।वो धरोवर जो आज से 400 से पहले उत्तराखंड वासियों को सौंपी गई थी , आज से करीब 400 साल पहले की जब उत्तराखंड के टिहरी जिले में महिपति शाह नाम के एक राजा हुआ करते थे, एक बार की बात है कि टिहरी के राजा ने अपनी सेना को तिब्बत से युद्ध करने का आदेश दिया । राजा ने गढ़वाल की वीर भड़ माधो सिंह भंडारी जो कि उस समय टिहरी की सेना के सेनापति हुआ करते थे उन्हें सेना के साथ तिब्बत से युद्ध करने के लिए भेजा। लेकिन टिहरी की सेना के तिब्बत रवाना होने के कुछ दिन बाद ही दिपावली का त्यौहार आ गया लेकिन क्योंकि दिपावली तक टिहरी सेना का कोई भी सैनिक युद्ध से वापस नही लौटा था इसलिए किसी ने भी इस साल दीपावली नहीं बनाई लोगों ने सोचा कि माधो सिंह भंडारी और उनकी सेना युद्ध में शहीद हो गए , टिहरी सेना का टिहरी वापस ना लौटना सबसो चिंतित कर रहा था लेकिन लोगों की चिंता दिपावली के ठीक 11 दिन बाद तब दूर हुई जब दिवाली के 11 दिन बाद माधो सिंह भंडारी और अपने सैनिकों के साथ युद्ध जीत तिब्बत से टिहरी वापिस लौट आए।

इगास से जुड़ी पौराणिक मान्यता
पौराणिक मान्यता के अनुसार जब भगवान राम 14 वर्ष बाद लंका विजय कर अयोध्या वापस पहुंचे थे, तो अयोध्या वासियों ने उनके आगमन पर अपने घरों को दीयों से रोशन किया था। तभी से दीपावली का त्योहार मनाया जाता है। कहा जाता है कि उत्तराखंड में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना देर से पहुंची थी। इसलिए यहां के लोगों ने 11वें दिन एकादशी को दिवाली मनाई, जिसे इगास कहा गया।

ऐसे मनाते हैं इगास
पर्वतीय समाज में भी दीपावली के लिए अपने घरों का रंगरोगन और साफ-सफाई की जाती है। 11वें दिन इगास पर घरों में पारंपरिक पकवान बनाए जाते हैं। सुबह गाय-बैलों की पूजा की जाती और रात को पूरे उत्साह के साथ ग्रामीण एकसाथ ‘भैला’ खेलते हैं।

ऐसे खेलते हैं भैला
इगास पर्व के लिए पेड़ों की छाल से रस्सियां तैयार की जाती हैं, जिससे चीड़, देवदार, भीमल, हिंसर आदि की सूखी लकड़ियों का गट्ठर बांधा जाता है। शाम को भैला खेलने से पहले उसकी पूजा कर तिलक किया जाता है। फिर ग्रामीण भैलों पर आग लगाकर इसे चारों ओर घुमाते हैं। पारंगत ग्रामीण भैलों से करतब भी दिखाते हैं। इसबीच ढोल दमाऊ की थाप पर शेष लोग पांरपरिक लोकनृत्य झुमैलो, चांचड़ी करने के साथ लोक गीतों भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू आदि लोक गीतों के अलावा मांगल, जागर आदि गाते हैं।

युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई थी। और क्योकिं उस दिन एकादशी का दिन था इसलिए इस पर्व को इगास नाम दिया गया और तब से लेकर आज तक यह त्यौहार इगास नाम से दीपावली के 11 दिन बाद मनाया जाता है

 

 

 

 

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