मुकेश असीम
   जब उत्पादन के विस्तार का दौर होता है, जीवन में सुधार की उम्मीद रहती है तो संकीर्णता की हदबंदी की जा सकती है, उस पर कुछ चोट भी पहुंचाई जा सकती है। भारत और दुनिया में 1950-80 का पूंजीवाद का दौर ऐसा ही था। इसलिए तब के पूंजीवाद के जनतांत्रिक व बहुलतावादी होने का भ्रम बहुत जोर से फैला, यहां तक कि मार्क्सवादियों का बड़ा हिस्सा भी इस भ्रम का शिकार हो इसी व्यवस्था में फिट होने की जोड़तोड़ में ही लग गया।
    पर 1970-80 के दशक में ही यह भ्रम हकीकत से टकराने लगा था। पूंजीवाद में विस्तार का दौर खत्म हो वैश्विक स्तर पर इजारेदारी और नवउदारवादी दौर हावी हो गया जिसमें बुर्जुआ सत्ता और कॉर्पोरेट पूंजी अधिकाधिक एकाकार होते गए। विकास की ऊपरी चकाचौंध के अंदर भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार की असुरक्षा और अभाव हावी होते गए।
   मजदूर आंदोलन का अधिकांश सुधारवाद-करीयरीज्म में फंस कर, क्रांतिकारी बदलाव की लड़ाई छोड़ चुका था। अतः उससे नाउम्मीद हुए मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता को बुर्जुआ राजनीति और कॉर्पोरेट नियंत्रित शिक्षा, मीडिया, धार्मिक संस्थाओं के लिए यह समझाना सुलभ हो गया कि, उसके इस असुरक्षा और अभाव की वजह पूंजीवादी व्यवस्था की मुनाफे की होड़ के बजाय मेहनतकश लोग, आप्रवासी मजदूर, अल्पसंख्यक, अपने अधिकार मांगते वंचित समुदाय, मुक्ति के लिए जूझती स्त्रियां वगैरह हैं। यहां तक कि औपचारिक रूप से मजदूर आंदोलन में शामिल, लाल झंडा फहराने वाले बहुतेरे, भी इस दुष्प्रचार में बहुत गहरे तक फंसे हैं, उन्हें भी बहुसंख्यकवादी एकरूपता का विचार अपील करता है, बहुलता खतरनाक लगती है। यह फासीवाद के लिए व्यापक सामाजिक आधार तैयार करता है।
    पर इसका प्रतिरोध उसी गुजरे पूंजीवादी दौर की बहुलतावादी, सुधारवादी, मिश्रित, गंगा-जमुनी उदारता के बल पर नहीं किया जा सकता। इसके लिए तो पूंजीवादी समाज में बढती आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा व अलगाव के मूल कारण पूंजीवाद को व्यापक मेहनतकश आबादी के मुख्य शत्रु के रूप में पेश कर उसके खिलाफ साझा लडाई का मोर्चा खडा करना होगा। ऐसे मोर्चे के बिना किसी भूतकाल के अच्छे दिनों की याद के सहारे, फासीवाद से नहीं लडा जा सकता। उसके लिए तो भविष्य में एक शोषणमुक्त समाज की उम्मीद के निर्माण का सपना सामने होना जरूरी है।

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