योगेश भट्ट देहरादून/
कुल मिलाकर भाजपा और कांग्रेस के बीच सत्ता की सांप सीढ़ी का खेल ही उत्तराखंड की ‘नियति’ है। चलिए, इस खेल पर एक नजर डालते हैं।
साल 2000 में जब उत्तराखंड बना तो राज्य में भाजपा की अंतरिम सरकार बनी। भाजपा को भरोसा था कि पहले आम चुनाव में जनता उसे पलकों पर बैठाएगी लेकिन नतीजे अप्रत्याशित रहे।
साल 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 36 सीटें मिली तो तकरीबन सवा साल की अंतरिम सरकार में दो मुख्यमंत्री देने वाली भाजपा को जनता ने 19 सीटों पर समेट दिया।
कांग्रेस खुद नतीजों पर भरोसा नहीं कर पाई थी। उस चुनाव में बसपा को सात और उक्रांद को चार के अलावा एनसीपी को भी एक सीट मिली जबकि तीन सीटें निर्दलीयों के नाम रही।
पहली निर्वाचित सरकार कैसे चली और कैसी रही इस पर फिर कभी, परंतु यहां यह बताना जरूरी है कि अंतरिम सरकार से लगा राजनैतिक अस्थिरता का रोग पहली निवार्चित सरकार को भी लग चुका था। पूर्ण बहुमत की इस सरकार में पूरे साल राजैनतिक अस्थिरता रही ।
यह बात अलग है उत्तराखंड के सियासी इतिहास में अभी तक एक मात्र यही सरकार ऐसी रही जिसमें पांच साल तक नेतृत्व परिवर्तन नहीं हुआ। बहरहाल विकास के लिए जानी जाने वाली सरकार के प्रति नाराजगी रही होगी कि साल 2007 में दूसरे विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी कांग्रेस को बड़ी हार का सामना करना पड़ा।
इस चुनाव में भाजपा को 69 सीटों में से 34 सीटें मिली जबकि कांग्रेस 36 से लुढ़क कर 21 सीटों पर आ गई। उक्रांद के तीन विधायकों और तीन निर्दलीयों का समर्थन हासिल कर भाजपा ने सरकार बनायी।
भाजपा की इस सरकार में पांच साल में दो बार नेतृत्व परिवर्तन हुआ। पूरे कार्यकाल के दौरान राजनैतिक अस्थिरता बनी रही और नतीजा यह रहा कि तमाम कोशिशों के बावजूद साल 2012 में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई।
खुद मुख्यमंत्री भुवन चंद खंडूरी को कोटद्वार विधान सभा सीट पर हार का सामना करना पड़ा। भाजपा और कांग्रेस में से किसी को भी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हुआ। इस चुनाव में कांग्रेस को 32 सीटें और सत्ताधारी भाजपा को 31 सीटें हासिल हुई।
कांग्रेस ने तीन निर्दलीय विधायकों और उत्तरांखंड क्रांति दल (पी) के एक विधायक के समर्थन से सरकार बनाई। इस सरकार के कार्यकाल में प्रदेश ने राजनैतिक अस्थिरता का चरम देखा। इस दौर में उत्तराखंड की सियासत एक काला अध्याय लिखा गया।
नेतृत्व परिवर्तन हुआ, बगावत हुई, राष्ट्रपति शासन लगा, न्यायालय से सरकार की बहाली हुई, स्टिंग आपरेशन सामने आए, विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगे, और भी बहुत कुछ हुआ।
यही वह दौर था जब अपनी ही सरकार में कांग्रेस छिन्न-भिन्न हुई, पूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष समेत तमाम बड़े नेता पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हुए।
अब राज्य में राजनैतिक अस्थिरता बड़ा मुददा बन चुका था। सियासत और सिस्टम दोनों इससे बुरी तरह प्रभावित हो चुके थे। साल 2017 में भाजपा ने एक ओर इस राजनैतिक अस्थिरता को मुददा बनाया और दूसरी ओर मोदी को चुनाव का चेहरा।
नतीजे इस बार भाजपा के पक्ष में रहे, जनता ने स्पष्ट और बड़ा जनादेश दिया। कुल 70 सीटों में से भाजपा को 57 सीटों पर जीत हासिल हुई। कांग्रेस मात्र 11 सीटों पर सिमट कर रह गई तो वहीं बसपा और उक्रांद का पूरी तरह से सफाया हो गया।
नियति देखिए, प्रचंड बहुमत की सरकार के बावजूद राजनैतिक अस्थिरता ने उत्तराखंड का पीछा नहीं छोड़ा। इस सरकार में पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत फिर तीरथ सिंह रावत और इसके बाद पुष्कर सिंह धामी को सरकार की कमान सौंपी गई।
अब बात 2022 की। सत्ता की सांप सीढ़ी के खेल में अदल-बदल के लिहाज से 2022 में बारी तो कांग्रेस की है, लेकिन कांग्रेस की राह पहले जैसी आसान नहीं है। हालांकि जनादेश के लिहाज से तो भाजपा सरकार कटघरे में हैं।
अंदरूनी सर्वेक्षणों में भी भाजपा की स्थिति बंहद चिंताजनक बताई जा रही है। मगर इस सबके बीच भाजपा के लिए सुकून यह है कि कांग्रेस फिलवक्त बेहद कमजोर स्थिति में है। अगर सरकार में रहते हुए भाजपा बहुत अच्छा प्रदर्शन नही कर पाई है तो यह भी उतना ही सच है कि विपक्ष के तौर पर कांग्रेस की भूमिका भी प्रभावी नहीं रही।.