दाताराम चमोली/ 
 उत्तराखंड के लोग अच्छी तरह समझ लें कि हत्या सिर्फ एक बेटी अंकिता भंडारी की नहीं की गई, बल्कि पूरे उत्तराखंड की अस्मिता पर भी यह करारा हमला है। इसका दोषी कोई एक नहीं, बल्कि हम सब लोग हैं जो कि राज्य गठन के बाद से ऐसे लोगों को अपना भविष्य सौंपते रहे जिनमें से अधिकांश के पास विकास की समझ नहीं थी। उनके पास न तो विकास की कोई नीति थी और न उनकी नीयत ही जनहित में थी। उनकी नीति और नीयत सिर्फ यही थी कि राज्य को लूटो। खूब लूट-खसोट मचाओ और ऊपर बैठे हुए अपने आकाओं को हर तरह से खुश रखो। सच तो यह है कि वे जनता के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि अपने आकाओं के नौकर बने रहे। लूट-खसोट के चक्कर में उन्होंने देवभूमि का स्वरूप इस कदर बर्बाद किया कि उन्हें रिजॉर्ट्स खूब पसंद आए। पर्यटन और तीर्थाटन का उन्होंने इस कदर घाल-मेल किया कि ऐसा तो अविभाजित उत्तर प्रदेश में भी नहीं था। नतीजा यह है कि सत्ताओं की सरपरस्ती में पले भेड़िये खुलेआम उन मासूम बच्चों की निर्मम हत्याएं कर रहे हैं जिनके सुखद भविष्य के लिए शहीदों ने शहादतें दी थी।
  सोचने की बात है कि जिस राज्य के लोग सीमाओं पर सदैव राष्ट्र रक्षा में तत्पर रहे हैं, वहाँं की शातिर सियासी चालबाजियों के चलते बेटियाँ बेहद असुरक्षित हो चुकी हैं। रोज़गार के नाम पर खुले सिडकुल में तो बच्चों का जो शोषण होता आ रहा है, वह अमानवीयता की इंतेहा है। कभी भी किसी सरकार ने उनकी आवाज़ सुनने की ज़ररत महसूस नहीं की।
  हैरानी इस बात की है कि जिन्होंने देवभूमि के स्वरूप को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जनता के संसाधनों पर जमकर डाका डाला, राज्य की योग्य प्रतिभाओं का हक मारकर अपनों को रेवड़ियाँ बाँटने में शान समझी, वे भी आज अंकिता की हत्या पर घड़ियाली आँसू बहा रहे हैं। उन्हें इसमें कोई शर्म नहीं आती, लेकिन हम तो सोच ही सकते हैं कि हम क्यों ऐसे लोगों को इन 21 सालों तक चुनते रहे जिनकी छत्रछाया में सिर्फ लूट-खसोट की संस्कृति पनपी ? किन लोगों के हित में हमारे जल, जंगल और जमीन छीने जाते रहे हैं? जब तक हम असली जड़ तक नहीं जाएंगे तब तक हमें दुष्परिणाम भुगतने ही पड़ेंगे।