मोहित डिमरी:
आज से ठीक एक साल पहले हमने रेलवे प्रोजेक्ट में स्थानीय युवाओं को योग्यतानुसार रोज़गार देने की मांग को लेकर आंदोलन छेड़ा था। करीब चार वर्ष पूर्व हमने जन अधिकार मंच के बैनर तले स्थानीय व्यापारियों और भवन स्वामियों को मुआवजा देने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया था। इन दोनों आंदोलनों में हमें सफलता भी मिली।
सबसे पहले रेलवे प्रोजेक्ट में रोज़गार को लेकर आंदोलन की बात करूँगा। हमने उत्तराखंड क्रांति दल के बैनर तले रेलवे प्रोजेक्ट में स्थानीय युवाओं को रोज़गार देने की मांग को लेकर सुमेरपुर में रैली निकाली और कंपनी के कार्यालय पर तालाबंदी कर दी। रैली में बड़ी संख्या में युवाओं ने हिस्सा लिया। इस आंदोलन के बाद रेलवे प्रशासन के हाथ-पांव फूल गए थे। वे किसी तरह से इसे मैनेज करना चाहते थे। रेलवे के कुछ अधिकारी मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे कहा कि “आप हमें सेवा का मौका दीजिये। आपके लड़कों को रोज़गार मिल जाएगा। आप डंफर, जेसीबी, पोकलैंड मशीन भी यहां लगा सकते हो। आपको ठेका भी मिल जाएगा। आप इस तरह आंदोलन न कीजिये।” इस बीच हमारे यूकेडी के ही एक पदाधिकारी (जो अब दल में नहीं हैं) ने कंपनी के ऑफर को स्वीकार करने की सलाह भी दी थी।
मैंने कंपनी के अधिकारियों से सिर्फ इतना ही कहा कि आप योग्यतानुसार स्थानीय युवाओं को रोजगार दें। बाकी हमें कुछ नहीं चाहिए। इसके बाद कंपनी में कई स्थानीय युवाओं को रोजगार मिला। इसके बाद जब भी स्थानीय युवाओं ने अपने हक के लिए आंदोलन किया, हमने पूरा समर्थन दिया और आज भी हम उनके हक के लिए लड़ रहे हैं।
हैरानी मुझे तब हुई, जब दल के ही एक समर्पित साथी का फोन आया। उनका कहना था कि गांव में चर्चा हो रही है कि चुनाव के बाद आपने पोकलैंड मशीन खरीद ली है और आपका क्रशर भी चल रहा है। आपने देहरादून में आलीशान मकान बना दिया है।
देने के लिए फोन किया। मैं समझ गया कि विरोधियों ने मेरी छवि धूमिल करने के लिए तमाम तरह की मनगढ़ंत बातें कही हैं।
हमारे विरोधी/आम व्यक्ति रेलवे, एनएच या विभागों/कंपनियों के अधिकारियों से जानकारी ले सकते हैं कि हमारी कितनी मशीनें लगी हैं और हमारे कितने सगे-सम्बंधी, करीबियों को रोज़गार मिला है ? दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
करीब चार वर्ष पूर्व हमने जन अधिकार मंच के बैनर तले चारधाम सड़क परियोजना से प्रभावित व्यापारियों और भवन स्वामियों के मुआवजे की लड़ाई लड़ी। जिन लोगों ने तीस से पचास वर्ष पूर्व सरकारी जमीन पर दुकान या मकान बनाया था, सरकार उन्हें उनकी परिसंपत्तियों का मुआवजा नहीं दे रही थी। हमारा तर्क था कि पहाड़ में रोजगार के कोई साधन नहीं हैं और थोड़ा बहुत रोजगार यात्रा मार्ग पर है। दशकों से हमारे लोग यात्रियों की सेवा कर रहे हैं। अगर किसी ने सरकारी जमीन पर रोजगार के लिए दुकान बना दी है तो उसे इसका मुआवजा मिलना चाहिए। हम सिर्फ स्ट्रक्चर का मुआवजा मांग रहे हैं। हमने यह भी कहा कि जब सरकार मलिन बस्तियों को जमीन का मालिकाना हक दे सकती है तो परियोजना प्रभावितों को मुआवजा क्यों नहीं मिल सकता?
आखिरकार, लंबी लड़ाई लड़ने के बाद परियोजना प्रभावितों को मुआवजा देने का शासनादेश जारी हुआ। इसका फायदा समूचे उत्तराखंड के लोगों को हुआ। करोड़ों रुपए का मुआवजा प्रभावितों को बांटा गया।
इस बीच हमारे पास कई व्यापारी भाई आए। वह हमारे जन अधिकार मंच को आर्थिक सहयोग करना चाहते थे। लेकिन हमने स्पष्ट किया था कि हम किसी से एक भी रुपया नहीं लेंगे। अगर हम प्रत्येक व्यापारी से मुआवजे का एक छोटा सा हिस्सा भी लेते तो आज जन अधिकार मंच के पास एक करोड़ रुपये से अधिक धनराशि होती।
राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप अपनी जगह है। हो सकता है कि हमारे अंदर बहुत सारी बुराइयां/कमियां हो। हमारे कुछ फैसलों से लोग आहत हो जाते हों। हमारे अच्छे और बुरे कामों का मूल्यांकन होना चाहिए। मुझे लगता है कि समाज इसका मूल्यांकन करता भी है। कुछ सवाल ऐसे भी होते हैं, जिनके जवाब समय आने पर ही दिए जा सकते हैं।